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घाती कर्मों का संघर्ष :- समकित प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ ।
समकित प्राप्त करने के लिए उसके अनुरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विवेक शक्ति विकसित करना पड़ती है, दानांतराय तोड़ना पड़ती है, लाभांतराय का क्षय करना पड़ता है । (समकित प्राप्ति में ये कील (कांटा ) रुप है ) । भोग - उपभोग क्षय करना पड़ता है, वीर्यातराय का क्षयोपशम करना पड़ता है ।
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ये नौ की शक्तियों का संचार आवश्यक है, इसके लिए प्रबल पुरुषार्थ चाहिए तो अवरोध दूर होंगे ।
* आत्मा के विधेयात्मक गुण :
अहिंसा : संपूर्ण अहिंसा मोक्ष में ही है, अयोगी केवली को भाव (कठोरता कषायजन्य परिणाम) हिंसा नहीं पर द्रव्य हिंसा चालू ही रहती है ।
सूक्ष्म निगोद के जीव को संपूर्ण द्रव्य अहिंसा परंतु वहां भी भाव हिंसा ही है, ऐसा ज्ञानियों का कहना है । कोई भी जड़ वस्तु जो वर्तमान में दिखाई दे रही है वह भूतकाल के किसी भी जीव का कलेवर है । मोक्ष का जीव जगत की सभी जीवों को अभयदान देते हैं ।
सत्य :
- प्राकृतिक हितकारी नीति-नियमों का अनुसरण करना उसी का नाम सत्य है । जीव ने अनादिकाल से दूसरे के घर में प्रवेश करने का प्रयास किया, इसी से आत्मा परेशान हुई । केवलज्ञानी को मन से असत्य नहीं है, किन्तु वचन और काया का असत्य है । (पुद्गल को अपना समझने का असत्य) देह होने से देह का पालन - परद्रव्य में आचरण होने से द्रव्य असत्य है ।
* संपूर्ण सत्य प्रतिष्ठित मात्र सिद्ध ही है :
अचौर्य :- पुद्गल को ग्रहण नहीं करना, पुद्गल कभी किसी का मालिक नहीं बन सकता। सिद्ध में संपूर्ण अचौर्य है ।
मालिकी :- वस्तु तुम्हारी इच्छानुसार वर्तन करें ।
ब्रह्मचर्य :- दूसरे का भोगना वह अब्रह्म है । सिद्धों में संपूर्ण ब्रह्मचर्य है । अपरिग्रह :- पुद्गल को धारण नहीं करता, मोक्ष में संपूर्ण अपरिग्रह है ।
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