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अपूर्वकरण हुआ कहा जाता है । इसके बाद जीव सम्यक्त्व प्राप्त करे या न करे परन्तु संसार में कितना ही भ्रमण करने के बाद भी 1 को. को. सा. से अधिक स्थिति का बंध नहीं करता । अर्धपुद्गल परावर्तन काल में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
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यहां जीव को संसार का उच्च से उच्चतम सुख भी दुःख रूप लगता है । जीव संसार का सच्चा स्वरुप समझने के बाद ही मोक्ष का सत्य स्वरुप समझ सकता है । मुक्ति की जिज्ञासा तभी ही प्रकट होती है ।
* चरम यथा प्रवृत्तिकरण में,
पुद्गल में सुख का एकांत राग जो था वह टूट जाता है । मोक्ष स्वरुप का बोध प्राप्त होता है । मुक्ति की तात्विक जिज्ञासा प्रकट होती है । सोपान की भूमिका तैयार होती है ।
जो जीव भौतिक सुखों में ही एक तरफा सुख मान लेता है, वह नियम में तत्व से मोक्ष का द्वेषी है । ऐसे जीव संयोग से कभी मुक्ति के लिए जीवन अर्पित कर दे, मुक्ति की उत्कट अभिलाषा और हृदय स्पर्शी हो जाय, उसके लिए पुरुषार्थ भी करते हैं । फिर भी मोक्ष द्वेषी कारण पौद्गलिक सुखों में ही सुख का अनुभव करता है ।
उनका मोक्ष की भूमिका में राग होना कृत्रिम है, जिसको संसार के प्रति सहज राग हो तो मुक्ति के प्रति सहज द्वेष होता ही है । चरमावर्त में भी तत्व से द्वेष हो सकता है । अपुनर्बंधक अवस्था में जीव को तत्व से मुक्ति का अद्वेष होता है, चरम यथा प्रवृत्तिकरण में जीव को तत्व से मुक्ति के प्रति जिज्ञासा होती है ।
* तात्विक और अतात्विक इच्छा :
भौतिक सुखों में एक तरफा सुख बुद्धि होने पर वे जीव तत्व से मुक्ति के द्वेषी होते हैं । मोक्ष सहज रुचिभाव वह तात्विक । मोक्ष के प्रति अद्वेष होने पर मोक्ष के स्वरुप का बोध, पश्चात् मुक्ति की तात्विक इच्छा प्रकट होती है । मोक्ष में देखने का बहुत है और भोगने का कुछ नहीं, भोग सुख को भोगने वाले के अभाव में सुख होने की बात बुद्धि में आती ही नहीं, उसको मोक्ष की सच्ची जिज्ञासा ही नहीं है ।
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