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तप करने से वासना शांत होती है; कषायों का उपशमन होता है, किन्तु अपुनर्बंधक अवस्था तक नहीं पहुंचे तो अध्यात्म का एक्का नहीं बना क्योंकि अभी मुक्ति का द्वेष है।
* मुक्ति की तात्विक जिज्ञासा की प्राप्ति - चरमयथा प्रवृत्तिकरण :
कर्म क्षय से ज्यादा कर्म बंध की योग्यता तोड़ने का महत्व बढ़ जाता है । अपुनर्बंधक अवस्था आ गई इसलिए मोहनीय की 70 क्रोड़ा क्रोड़ी सागरोपम की स्थिति नहीं बांधते किन्तु 68-69-67 क्रोड़ा क्रोड़ी की योग्यता नहीं तोड़ी। ___ संसार के आवेग घटते जाते हैं वैसे-वैसे बड़ी शक्ति टूटती जाती है। जैसे राग द्वेष की दृढ़ ग्रंथि पर प्रहार करते हैं वैसे ही 69-68-67 क्रोड़ा-क्रोड़ी कर्म बंध की योग्यता नष्ट करता है । जब वह 1 क्रोड़ा-क्रोड़ी कर्मबंध की योग्यता नष्ट करता है । जब वह 1 क्रोड़ा-क्रोड़ी से भी कम ऐसा कर्मबंध की योग्यता नष्ट करता है, तभी जीव चरम यथा प्रवृत्ति करण को प्राप्त करता है। तब जीव तात्विक जिज्ञासा का अधिकारी होता है।
* ओघ दृष्टि-योग दृष्टि:- शुभ भाव, शुद्ध भाव
आंतरिक निर्मलता है, किन्तु हमेशा के लिए नहीं । अभी ओघ दृष्टि की निर्मलता है। योग दृष्टि की निर्मलता शुद्ध भाव से ही मिलती है और यही जीव शुद्ध भाव होने से गुण स्थानक को प्राप्त कर सकता है।
शुभ भाव-पुण्यबंध का साधन, शुद्ध भाव-कर्म निर्जरा का साधन, दोनों में भेद कितना? अनंत गुणा।
शुद्ध भाव में प्रवेश किस प्रकार होता है ? उसका आधार रुप साधन शास्त्र, युक्ति और अनुभव द्वारा, त्रिवेणी संगम चाहिए। * चरम यथा प्रवृत्तिकरण यानि क्या ?
जीव ने अनंत बार कर्म की स्थिति और रस 1 को. को. से न्यून किया किन्त स्थिति बंध की योग्यता को नष्ट नहीं किया इसलिए आध्यात्म में प्रवेश नहीं हुआ। यदि
यथा प्रवृत्तिकरण में ये योग्यता टूटे तो वह चरम यथा प्रवृत्तिकरण होगी । यही 5@GOG©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®© 208 G©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©