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* मोक्ष मार्ग की प्रथम भूमिका अपुनर्बंधक अवस्था, जो क्षयोपशम के भाव से प्रकट होती है । मोहनीय कर्म की उ. स्थिति कभी भी फिर न बांधे, कारण ? आत्मा में से यह दोष हमेशा के लिए नष्ट हो गया है ।
* सभी दोषों का मूल कहां है ? मोह में । मोह एकदम हरा हरा क्यों है ?
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मोह के मूल का अभी तक अनंत रुप से पोषण हो रहा है । वह मूल क्या है ? मिथ्यात्व । * मिथ्यात्व का मूल क्या है ? 'ग्रंथि समकित' में ग्रंथि भेद होने के बाद मिथ्यात्व का मूल बिखर जाता है ।
* ग्रंथि का मूल क्या है ? संसार का सहज राग, हठाग्रह, संसार की रसिकता । जो इसको तोड़ सकता है, वह अपुनर्बंध अवस्था को करता है, करता है और करता ही है । * 84 लाख योनि का अवलोकन किया है ?
राजा इन्द्र या चक्रवर्ती सभी को दुःख है, अन्यथा वैराग्य नहीं लेते ।
* जन्म यानि क्या ? देह, इन्द्रिय मन का संयोग ही जन्म है, जन्म दुःख का निमित्त है, मृत्यु का प्रश्न भी जन्म के लिए ही निदान है ।
* संसार रुपी रोग का निदान क्या ? मोह, जड़ के प्रति आकर्षण आदि भावों को धीरे-धीरे निर्बल और क्षय करना ही है ।
* दुनिया में राग-द्वेष दो प्रकार के हैं - (1) कृत्रिम, (2) अकृत्रिम, सच्चा राग ।
1. कृत्रिम - कामचलाऊ, औपचारिक जड़ के ऊपर का राग, व्यक्ति के प्रति का राग द्वेष, शरीर के प्रति का राग ।
2. असली, सहज, बिना प्रयत्न के होने वाला राग भौतिक सुख बुद्धि का ।
* राग-द्वेष की तीव्रता यही मिथ्यात्व की गांठ । इसके प्रभाव से विवेक चला जाता है । एक बार मिथ्यात्व की गांठ बिखर जाती है तो वह फिर से नहीं बंधती ।
* श्रावक के मन में पैसे के साधन से होते धर्म से ऊँचा धर्म करने जैसा है वह मन में दृढ़ होना चाहिए।
* सुख की निंदा शास्त्र में है ही नहीं । जो सुख नहीं मिला उसे प्राप्त कराने के लिए ही धर्म है ।
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