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11 वें गुण स्थानक में साधक के मन में राग का अंश मात्र नहीं होता । Inactive राग से कर्मबंध नहीं होते ।
आत्म शुद्धि हो तब ही समकित प्राप्ति
* समकित कब आता है ?
आत्म शुद्धि होती है तब आता है । चित्त शुद्ध होने से मन शांत, स्वस्थ, निर्मल जरूर बनता है, परन्तु आत्म कल्याण नहीं कर सकता । मन शांत होता है किंतु संसार से विरक्त नहीं होता तो वह आध्यात्महीन है ।
* आत्म शुद्धि यानि क्या ?
विकारों में दुःख का संवेदन । विकृति समूल नष्ट होती है तो ही आत्म शुद्धि का अंश आता है । मान्यता रुप में मन शुद्ध होना चाहिए । जो विषयों में दुःख का अनुभव करे, उसी में आत्म शुद्धि की योग्यता होती है ।
* चित्त शुद्धि, आत्म शुद्धि का साधन है । देह, इन्द्रिय, मन अलग कर दिए किन्तु आत्म शुद्धि जो अब पृथक करना है, कितनी गंभीर बात है । आत्म शुद्धि के बाद चित्त शुद्धि (मन शांत, स्वस्थ, निर्मल बने) तुरंत आ जाती है; ऐसा नियम नहीं है। जल्दी या धीरे भी हो सकता है । युगलिक चित्तशुद्धि वाले, देवलोक में एक बार जाए फिर क्या ?
* ‘नदी घोल पाषाण न्याय' से शांत स्वभावी के कर्म हलके हो जाते हैं । सद्गुण के विकास से चित्त शुद्ध होती, दोष हल्के हो जाते हैं ।
* आत्म शुद्धि के लिए दोष समूल नष्ट होना जरूरी है ।
* शाखा प्रशाखा युक्त गहन वृक्ष की जड़ (मूल) पर प्रहार नहीं होता । मोह के विकारों को गलत नहीं माना है, संसार बुरा नहीं माना तो चित्त शुद्धि होकर भी आत्म शुद्धि अभी नहीं हुई । मेरा भाई, मेरा परिवार आदि मूल जड़ तो कटी नहीं ।
* क्षयोपशम, उपशम, क्षायिक इन तीनों में से किसी भी भाव द्वारा किया गया मोहनीय कर्म का किंचित नाश, कुछ अंश में आत्म शुद्धि प्रकट करता है ।
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