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* जो कर्म में मानता है वह ऐसी वैसी तरह जीवित रह ही नहीं सकता । तुम्हारे पुरुषार्थ के बिना दूसरा कोई तुम्हें पाप बंधा नहीं सकता । दोष भी पुरुषार्थ ही निकालता है । पुरुषार्थ के लिए संकल्प बल की आवश्यकता है ।
* संसार का निश्चित सत्य यही है कि 'शुभ भाव से निश्चित शांति और अशुभ भाव से निश्चित अशांति मिलेगी । '
आत्म शक्ति पर सदृहणा प्रकट हो तो आत्मवीर्य उल्लसित होता है, अफसोस यही है कि इसका अंशत: भी विश्वास नहीं है ।
* दृढ़ मनोबल युक्त व्यक्ति का अन्य व्यक्ति पर, गहरा प्रभाव पड़ा है । अन्यथा समवसरण में बाघ - बकरी साथ नहीं बैठते ।
चित्त शुद्धिकी श्रद्धा से, केवलज्ञान भीतर ही है, श्रद्धा चाहिए ।
जीव की दशा :- जन्म लिया जब से देह के साथ इतने घुल मिल गए कि देह की भिन्नता भूल गए । अरे ! आत्मा सिर्फ देह-इन्द्रिय से ही अलग नहीं है किन्तु मन से भी भिन्न है । मन और आत्मा दोनों स्वतंत्र है । मन का सुख अलग, आत्मा का अलग ।
मन शुद्ध हुआ यानि आत्मा शुद्ध हो गई । ऐसे दोनों एक नहीं है । भाव मन की चेतना (उपयोग मन) मोहात्मक है, अशुद्ध है। आत्मा की चेतना शुद्ध चेतना - ज्ञान चेतना है, शुद्ध है।
* आत्मा का अनुभव करने का उपाय है ?
आत्मा की अनुभूति के बिना एक भी क्षण नहीं है । परन्तु शुद्ध आत्मा की अनुभूति नहीं है । जो है वह प्रतिक्षण अशुद्ध आत्मा की ही है । चींटी को शक्कर के आकर्षण की ललक उसकी आत्मा की संवेदना है, तृष्णा का अनुभव है; तृष्णा का राग चेतन को होता ही है। परन्तु विकृत चेतना का अनुभव है ।
* 11-12वें गुण स्थानक में वीतराग दशा है, वहां मोहात्मक चेतना नहीं, ज्ञानात्मक चेतना है, परन्तु वह कर्मबंधन का कारण नहीं है । 11वें गुणस्थानक से जीव पड़ता है, पर वीतरागता है, वहां कषाय व्यक्त नहीं होते । निमित्त योग से कषाय है, शक्ति रुप है ।
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१९७९ 300