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सीखे हैं। ज्ञानी पदार्थ को अंत से पहचानने का कहते हैं। अंत:स्थल पढ़ते ही नहीं ;
समतल को ही पढ़ते हैं। * मान्यता बदलने की क्रिया अपूनर्बंधक अवस्था से प्रारंभ होती है :- द्विबंधक,
सुकृतबंधक, अपुनर्बंधक, मार्गाभिमुख, मार्गपतित, मार्गानुसारी, चरमयथा
प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, अंत:करण, समकित । * मन का स्वरुप दर्शन :- अच्छे में रुचि, बरे में अरुचि, जीव की मान्यता रुचि
अरुचि के साथ बुनाई गई है, पाप-पुण्य के अनुबंध रुचि-अरुचि के कारण चलते
ही रहते हैं। * अशुभ भाव लब्धिमन की गंदगी का उभरना कारक है :- मान्यता जितनी अशुभ
उतना ही जीव के पाप-पुण्य का अनुबंध तीव्र होता है। * रुचिकर काम में समय चला जाता है, आत्मा पीछे रह जाती है । ‘स्वद्वेषी' बन गए
* लब्धि मन का प्रथम भाग मान्यता, दुसरा भाग परिणति-प्रकृति में बने गए
शुभाशुभ भाव। * उपयोग मन में एक साथ विरोधी विचार नहीं कर सकते । लब्धिमन में विरोधी
विचार नित्य रहते हैं। वहाँ उदारता भी होती है साथ ही लोभवृत्ति भी। * देह - इन्द्रिय मन :
देह : शरीर की गंदगी, थकान, भूख-प्यास का काम चलाऊ निवारण करना, उसका नाम देह सुख है।
84 लाख योनि के सभी जीवों का मूल स्वरुप यही है । सिर्फ योनि के अनुरुप स्वरुप बदलता है । सबसे ज्यादा भूख-प्यास-थकान, गंदगी (1) नारक में सबसे अधिक, (2) पशुओं में उससे कम, (3) मनुष्य में इससे कम, (4) देवों में सबसे कम।
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