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5. उदय :- नियत समय में फल देने को तत्पर हो वह उदय ।
6. उदीरणा :- उसके समय से पूर्व फल देने में तैयार हो जाए उसे उदीरणा कहते हैं; उदीरणा होने के लिए -
1. विशेष प्रयत्न करना जरूरी है, जैसे आम को घास में रखकर समय पूर्व पका लेना ,
2. अपवर्तना द्वारा कर्म की स्थिति कम करना जरूरी है। अपवर्तना, सत्चारित्र, भावोल्लास के बल से किया जा सकता है।
अकाल मृत्यु, आयुष्य कर्म की उदीरणा का कारण है । अमुक अपवाद के अतिरिक्त उदय और उदीरणा कर्मों का हमेशा चलता रहता है । उदीरणा जो कर्म उदय में होते हैं उससे ही होता है; उदय होते तब प्रायः उदीरणा होती ही है। ____7. संक्रमण : एक कर्म जब सजातीय अन्य कर्म की प्रकृति रुप हो जाती है तब 'संक्रमण' की क्रिया हुई कहलाती है। आठ कर्म मूल है, वे एक-दूसरे प्रकृति रुप होते नहीं हैं आवांतर भेद में सजातीय रुपांतर हो सकते हैं । दा. त. शाता-अशाता वेदनीय रुप हो सकते
हूँ।
अपवाद :- आयुष्य कर्म की 4 प्रकृतियाँ एक दूसरे में रुपांतर नहीं होती । दर्शन मोहनीय कर्म, चारित्र, मोहनीय कर्म में संक्रमण नहीं होता।
8. उपशमना :- उदित कर्म को उपशांत करना, उपशमन में उदय-उदीरणा नहीं होती। उसी प्रकार संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, निधत्ति-निकाचना भी नहीं होता।
9. निधति :- कर्मबंध की सघन अवस्था, यहां उदीरणा या संक्रमण नहीं होता परन्तु उद्वर्तना-अपवर्तना हो सकता है।
10. निकाचना :- कर्म बंध की सबसे अधिक सघन अवस्था । यहां कोई क्रिया नहीं चलती । उदीरणा-संक्रमण-उद्वर्तना-अपवर्तना आदि नहीं होता। निकाचित कर्म उदय में आते हैं तब प्राय: अवश्य ही भोगना पड़ते हैं।
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