________________
®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®@GOOG
* कर्म की मुख्य 10 अवस्थाएँ :- बंध, उद्वर्तना, अपवर्तना, सत्ता, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशमन, निधत्ति, निकाचना।
1.बंध :- कार्मण वर्गणा के पदगलों का जीव के साथ दध-पानी सा या लोह-अग्नि के समान परस्पर एक रुप संबंध होना उसे बंध कहते हैं । आत्मा के सभी प्रदेश कर्मरज ग्रहण करते हैं, प्रत्येक कर्म के अनंत स्कंध आत्मा के समस्त प्रदेशों में बंधते हैं; यह कर्म की प्रथम अवस्था है, बंध के 4 भेद = प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश ।
2-3 : उद्वर्तना, अपवर्तना :कर्म की स्थिति, रस बढ़ा : उदवर्तना हुई कहा जाता है । कर्म की स्थिति, रस कम हुआ : अपवर्तना हुई कहा जाता है।
बुरे कर्मों को सत्चरित्र, भावोल्लास के बल से स्थिति एवं उसकी कटुता कम की जा सकती है । अपवर्तना हुई कहा जा सकता है।
घोर नरक में जाने वाले जीव जागृत हो गए और तपोबल से कर्मों का विध्वंस कर दिया, उसके दृष्टांत कहां नहीं है । ऐसे जीव परमात्म पद को प्राप्त कर गए - दृढ़ प्रहारी ने ब्राह्मण, स्त्री, भ्रूण, गाय की हत्या करने के बाद भी तपोबल से मुक्ति को प्राप्त कर लिया।
प्रमाद : निद्रा में आत्मा सोते सिंह के समान है, जब वह जागृत होती है तब मोह रुप मातंग (हाथी) को हरा कर कर्मों से विजित होती है। __ उद्वर्तना में अल्प स्थिति का अशुभ कर्म बांधने के बाद फिर बुरा कार्य करे, आत्म परिणाम कलुषित करें तो इसके कर्म की स्थिति तथा रस बढ़ता ही जाता है।
अपवर्तना-उद्वर्तना के कारण कोई कर्म जल्दी फल देता है, तो कोई देर से, कोई कर्म का फल मंद होता है तो कोई कर्म का फल तीव्र मिलता है।
4. सत्ता : कर्म बंध होने के बाद तत्काल फल नहीं मिलता है तो वह सत्ता रुप में कर्म पड़ा रहता है। जितने समय तक सत्तारुप में रहता है उस समय को अबाधा काल कहते हैं । यह काल स्वाभाविक क्रम से या अपवर्तना द्वारा पूर्ण होते ही कर्म स्वयं का फल देने को तत्पर हो जाता है उसे कर्म का उदय कहते हैं।
50505050505050505050505000283900900505050505050090050