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कषाय की तीव्रता (शुभ या अशुभ) जितनी अधिक, कर्मबंध की स्थिति उतनी अधिक अनुभाव (रस) अन्य प्रकार से होता है ।
कषाय तीव्र है, कर्म प्रकृति अशुभ है, अशुभ प्रवृत्तियों का रस अधिक बंधता है । शुभ प्रवृत्ति का रस कम बंधता है ।
कषाय मंद है, कर्म प्रकृति अशुभ है, रस कम बंधता है (अशुभ प्रवृत्ति का ) कषाय मंद है, कर्म प्रकृति शुभ है, रस अधिक बंधता है (शुभ प्रकृति का )
जीव कर्म पुद्गलों के ग्रहण करने के साथ ही कर्म पुद्गलों में एक विचित्र जोश आ जाता
है।
जीव में कषाय रूप परिणाम प्राप्त होते ही उसमें अनंतगुणा रस उत्पन्न होता है जो जीव के गुणों का हनन करता है । यह रस जीव के लिए भयंकर उपाधि है । शुभ रस से सुख और अशुभ रस से दुःख मिलता है ।
एक ही प्रकार के कर्म पुद्गल भिन्न-भिन्न जीवों के कषायरुप परिणामों का निमित्त प्राप्त कर विभिन्न रसवाले बनते हैं। इसी को रसबंध, अनुभाव बंध या अनुभाग बंध कहते हैं । एक घास खाने वाले प्राणी - भैंस, गाय, बकरी आदि प्रत्येक के शरीर में घास का परिणमन अलग हो जाता है । चिकना दूध, पतला दूध, मंद प्रकृति का दूध जिस प्रकार होता है उसी प्रकार कर्म का - रस बंध का स्वरुप है ।
शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य ।
योग शुभ हो और पुण्य कर्म अशुभ हो तो पाप कर्म बंधता है परन्तु शुभ योग के समय भी पाप प्रकृति का बंध होता है एवं अशुभ योग के समय भी पुण्य प्रकृति का बंध होता है । इसलिए शुभ योग हो किन्तु कषाय परिणाम मंद होता है तो पुण्य प्रकृतियों के अनुभव रस की मात्रा अधिक होती है और प्रकृतियों के रस की मात्रा कम होती है । अशुभ योग हो तो कषाय परिणाम तीव्र होता है जिससे पाप प्रवृत्तियों के रस की मात्रा अधिक होती है एवं पुण्य प्रकृति के रस की मात्रा कम होती है ।
मुख्यत: जो अनुभाव की होती है उसको लेकर सूत्र का विधान होता है ।
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