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फल बताने के बाद जब छूट जाता है तो उसे 'प्रदेशोदय' कहते हैं । साधना के द्वारा प्रदेशोदय से कर्मपुंज नष्ट किया जा सकता है, जब सभी कर्म नष्ट होते हैं तब मोक्ष सिद्धि मिलती है।
प्र. :- जो कर्म बांधते हैं वे सभी भोगना पड़ते हैं ?
उत्तर :- ‘प्रदेशोदय' अनुभव की अपेक्षा से भोगना ही पड़ते हैं, विपाकोदय से नहीं । शुद्ध अध्यवसाय के बल से प्रसन्नचंद्र राजर्षि ने नरकगति योग्य कर्म बांधने के बाद भी उनका नीरस करके प्रदेश को भेदकर कर्मों को क्षय कर लिया था।
विपाकोदय से ही यदि कर्मों को जर्जर करना होता तो मोक्ष प्राप्ति हो ही नहीं सकती। वर्तमान भव में कर्म बांधता ही रहता है और पूर्व भव के बंधे हुए कर्मों को छोड़ता भी जाता है। परंपरा का अंत विपाकोदय से नहीं हो सकता। _____13. 'पूर्व जन्म - पुनर्जन्म' :- जीव के जन्मों की (भिन्न-भिन्न देह धारण करने की) परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है और यह मान्यता भी तर्क संगत प्रतीत होती है । आत्मा का प्रथम जन्म यानि आत्म का प्रारंभ जैसा नहीं माना जा सकता । कारण कि पृथक -की आत्मा अजन्मी हो और शुद्ध अजन्मी आत्मा का जन्म मानना पड़ता है । इस प्रकार समझने से जीवन का ध्येय जो शुद्ध आत्मा तरफ जाना है - "वह फिर जन्म लेना पड़ेगा" का तर्क से कलुषित हो जाएगी। देहधारण की कड़ी टूटने के बाद वह हमेशा के लिए टूटी ही रहेगी, ऐसा मानना सही लगता है। ___ एक ही मां की संतान में अंतर दिखाई देता है । क्यों ? वह पूर्व जन्म का प्रभाव ! इस युक्ति का पोषण करती है । अनीति एवं अनाचार में व्यस्त धनवान व्यक्ति स्वयं को सुखी मानता है । इसमें पूर्व जन्म का ही असर दिखाई देता है । ऐसा होते हुए भी जीव पुनर्जन्म में इस अनीति के कारण दुःख और अनेक अनिष्ट संयोगों को धारण करने के लिए जैसे तैयारी कर रहा हो ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं है । कमाई करने के लिए न्याय सम्पन्न होने से प्रशस्त मार्ग में आकर जीव पुण्योपार्जन करता है। फिर भी धर्म प्रभावना के लिए धन संग्रह नहीं
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