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GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®OGOGOGOGOGOG से नहीं छूटती, स्वत: ही छूट जाती है । सत्प्रवृत्तिमय जीवन विकासशील जीवन बनता है।
* कर्म बंध के हेतु - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग । योग को आश्रव का हेतु और बंध का हेतु भी कहा है। ___ * मानसिक क्रिया से कर्मबंध होता है किन्तु सदाचारी जीव को इससे भय नहीं होता है; क्योंकि वह पुण्यकर्म का बंध एवं उच्च निर्जरा रुप पुण्य का बंध करते हुए आत्मकल्याण करता रहता है।
* कर्म जब अबाधाकाल पूरा करते हुए विपाक-फल बताते हुए उदय में आता है, तब उस क्रिया को रसोदय कहते हैं । फल के बिना बताए जब यह बिखर जाता है तब उसको 'प्रदेशोदय' कहते हैं।
अनंत कर्म का संग्रह साधना द्वारा प्रदेशोदय से नष्ट कर सकते हैं, जब सर्व कर्म नाश होते हैं तब मोक्ष सिद्धि मिलती है । हम जो कर्म बंध करते हैं, वे ‘प्रदेशोदय' की अपेक्षा से भुक्तान करना पड़ते हैं, विपाकोदय- से नहीं।
* कर्म बंध होते ही, पुद्गल में जोश आ जाता है और उन कर्म की प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश ये उसी समय निर्माण होते हैं। योग :- प्रकृति से स्वभाव निश्चित होता है।
प्रदेश से कितने कर्मों का स्कंद बंधाता है यह निश्चय हो जाता है। कषाय :- स्थिति से आत्मा के साथ रहने का समय।
रस से तीव्र या मंद, अनुकूल या प्रतिकूल फल देने वाली शक्ति। कषाय -4:-क्रोध, मान, माया, लोभ । पेटाभेद 4:-1. अनंतानुबंधी : मिथ्यात्व के साथी, सम्यग्दर्शन को रोके 2. अप्रत्याख्यानावरण : देशविरति को रोके। 3. प्रत्याख्यानावरण : सर्वविरति को रोके। 4. संज्वलन : वीतराग चारित्र को रोके ।
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