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* कर्म उदय में आने पर हाय-हाय' न करें। उसको समझें कि यह ऐसा ही होता है।'
* जिस स्वादिष्ट खान-पान से संसारी व्यक्ति के मुंह में पानी आ जाता है उसी खानपान को देखकर ज्ञानी की आंख में पानी आना यह आवेदनीय अनासक्त भाव की बलिहारी है।
* प्रशस्त ‘शम भाव पुरुषत्व है; पुरुषार्थी बनना उपयुक्त है।
* रोग उत्पन्न हुआ, इसमें पूर्व कर्म बंध ही कारणभूत है किन्तु उसके लिए प्रयत्न ही न करें तो उसे 'प्रमाद' ही कहा जायेगा। विवेक.... विवेक.... विवेक ही रखना आवश्यक है।
* भाग्योदय समय अज्ञात है, मनुष्य का काम पुरुषार्थ करने का है । कारण ? आत्मा की सत्ता ही सर्वोपरि है । कर्मवाद का वास्तविक स्वरुप समझने वाला ही मन को स्वस्थ रख सकता है । उद्यम - पुरुषार्थ करते समय।
इच्छित फल प्राप्त होने पर खुशी में फूलें नहीं और फल न मिलने पर निराश न हों । यदि ऐसा होता है तो कर्मवाद का नियम उल्लंघन होना गिना जाता है।
* किसी पर आपत्ति आती है तो तुरंत उसकी मदद करना चाहिए। प्रत्येक प्राणी एकदूसरे के सहयोग से ही संसार में जीवित रहता है।
* दान के विषय में, भाव की प्रमुखता महत्वपूर्ण बन जाती हे -
भाव शुभ या अशुभ, वैसा ही उसका फल, विवेक बुद्धि आवश्यक है, विवेक दशवाँ भंडार है, 'विवेको दशमो निधिः'।
9 निधि :- नैसर्प : ग्राम-नगर, पांडुक : छोटे-बड़े द्रव्य, पिंगलक : आभूषण, सर्वरत्न : चक्रवर्ती के 14 रत्न, महापद्म : वस्त्र, काल : सभी कलाओं का ज्ञान, महाकाल : 7 धातु स्फटिक आदि, माणवक : युद्धनीति, दंडनीति, योद्धा, शस्त्र, शंखक : संगीत, वाद्य यंत्र, नृत्य की उत्पत्ति आदि।
* कर्मबन्ध से छूटने के लिए नासमझी के कारण निष्क्रिय बन जाते हैं वे मूर्ख हैं । बाहर से निष्क्रिय और भीतर से चहुंओर भ्रमण करता है वह दंभ का भोक्ता बनता है । प्रवृत्ति छोड़ने
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