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कर्म विचार कर्मवाद का सनातन नियम :- जैसा करे वैसा भरे, जैसा बीज बोएगा वैसा फल पायेगा' जीवों को श्रद्धा किसमें ? सर्पक के विषय में । परन्तु दुष्ट कर्मों की भयानकता में इतना श्रद्धा नहीं । इसको कहते हैं सनातन नियम का अनादर होना। मयणा सुंदरी : जो हो रहा है मेरे कर्मों के उदय से हो रहा है।
* कर्म उदय में आते हैं तो इनको किस प्रकार भुगतान करना ? समता से । समता से क्यों ? नए कर्मो का बंध न हो ! यानि इसका अर्थ क्या ? सुख भोग का उदय होने पर उसमें पूरी तरह आसक्त न हो । मन में भाव कैसे रहे ? अनासक्त भाव।
षट् रस भोजन जबरन हमारे मुख में नहीं आता, आसक्ति करवाती है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियाँ, कर्णप्रिय संगीत, सुखमय स्पर्श, सुरभिमय सुगंध, सुंदरता मय स्वरूप देखना।
प्रत्येक स्थूल भोग में विलासवृत्ति का उदय होता है, उसमें आसक्त होना न होना अपनी आत्म शक्ति के पुरुषार्थ की आवश्यकता है जो कर्म बंध के निमित्त से मुक्त रह सके तो ही अभयता प्राप्त हो सकती है।
* सांसारिक जीवन की कोई भी घटना के पीछे सामान्यत: किस का बल होता है ? पूर्व कर्म का।
* आपत्ति आती है - आपत्ति लाने वाला इच्छापूर्वक बर्ताव करता है तो वह भी दोष में पड़ता ही है । हत्या करने वाला नि:संदेह अपराधी है । जिसकी हत्या हुई उसका पूर्व कर्म भी साथ ही उदीयमान है।
* किसी ने अपने संघ का बुरा किया इस बात को निरर्थक न समझें । बुरा करने वाला, संघ का अवगुण बोलने वाले ने अति अशाता वेदनीय कर्म बांध लिए।
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