________________
G
आत्मा के अस्तित्व का भी अनुभव नहीं होने देता, आत्मा के शुद्धिकरण का सम्यग् ज्ञान भी नहीं होने देता, ऐसा है ।
दो भेद : (1) मिथ्यात्व मोहनीय और (2) चारित्र मोहनीय ।
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के कारण आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान नहीं होता, इसके कारण 'अंधा पीसे, कुत्ता खाए' जैसी आत्मा की स्थिति हो जाती है ।
सम्यग्दर्शन नहीं होने देने में 4 अनंतानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व की 3 प्रकृतियाँ मूल कारण हैं (दर्शन सप्तक कहते हैं)
आत्मा में जब अनिवृत्त पुरुषार्थ बल की प्राप्ति होती है, तब ये सातों कर्म प्रकृति के बादल बिखरने लग जाते हैं । जब ये सभी पूर्ण रुप से छंट जाते हैं तब जीवात्मा को अनुपम एवं अद्वितीय अनुभूति होती है ।
जैसे भूखे व्यक्ति को भोजन मिले, प्यासे को ठंडा पानी मिले, निर्वस्त्र व्यक्ति को गरम कपड़े पहनने को मिल जाए, उसकी जो अनुभूति होती है वैसा ही उपमायुक्त सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है ।
इसके साथ ही आत्म की अनंत शक्ति, पुण्य-पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, जीवअजीव आदि जिन प्रणीत नव तत्व, संपूर्ण कर्म क्षय से मोक्ष, कर्म बंधन से आत्मा स्वयं
सम्यग्दर्शन - सम्यग्ज्ञान प्राप्त होने के बाद भी मोहनीय कर्म के कारण मोहनीय कर्म इसका प्रभाव बताता ही है, चारित्र मोहनीय कर्म के लंगोटिये मित्र के समान ज्ञानावरणीय चारित्र प्राप्त मानव को भी चलायमान करता रहता है ।
जैन धर्म 'मामेकं शरणं व्रज' का सिद्धांत नहीं स्वीकारता है, कारण कि आत्मा को कर्म का कर्ता और भोक्ता मानता है । स्व पुरुषार्थ से ही आत्मा मुक्त होती है । जिनेश्वर की जिनाज्ञा का निमित्त बल सहायता अवश्य करते हैं । स्वाध्याय में पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। ॥ जैन जयति शासनम् ॥
264