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कर्म में भी माला, चंदन, वनिता आदि बाह्य वस्तुओं के संसर्ग से बलाधान होता है । इसलिए वह मूर्त है ।
(4) कर्म मूर्त है, क्योंकि वह आत्मादि से भिन्न रूप में परिणामी है, जैसे दूध । ज्ञान अमूर्त है परन्तु मदिरा, विष आदि मूर्त वस्तुओं द्वारा उसका उपघात होता है। घी, दूध आदि पौष्टिक आहार द्वारा उसका उपकार होता है (बदाम) । इसी प्रकार मूर्त कर्म द्वारा अमूर्त आत्मा का अनुग्रह या उपकार हो सकता है ।
जीव, कर्म परिणाम रुप है, इससे उपर्युक्त रुप में मूर्त है, इसलिए अनेकान्त भाव से विचार कर सकते हैं । आत्मा अनेकांत रुप में अमूर्त नहीं है, इस प्रकार मूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म द्वारा होने वाले अनुग्रह और उपघात को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । देह और कर्म में परस्पर कार्य- - कारण भाव है । कर्म और देह की परंपरा अनादि है ।
जैन दर्शन
प. पू. न्यायविजयजी म. सा.
मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद :
दर्शन मो. और चरित्र मो. : - चारित्र में बाधा डाले वह चरित्र कर्म । (चा.मो. के 25 भेद) जो श्रद्धा में विघटन उत्पन्न करें, वह दर्शन मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय |
जो तत्व की श्रद्धा में बाधक बने, वह दर्शन मोहनीय, मिश्र मोहनीय ।
जो तत्व की श्रद्धा को बाधित करे, वह दर्शन मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय |
तत्व : कल्याणमय वस्तु, जिससे आत्म कल्याण को साधा जाए, वह तत्व कहा गया है । दर्शन मोहनीय के अर्थात् मिथ्यात्व के पुद्गलों का उदय जब अंतमुहूर्त तक रुक जाता है तब जीव को उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
इस परिणाम (आत्मा का परिणाम) के अंतर्गत इसके प्रकाश में जीव उदय में आने वाले (अंतमुहूर्त बाद) मिथ्यात्व मोहनीय के पुद्गलों का संशोधन करने का काम करते है ।
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