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* मोह वृक्ष
___तत्व का अज्ञान यह मोह का शरीर है, तत्व का ज्ञान चारित्र धर्म का शरीर है । समूह से, मोह परिणाम से ही आठों ही कर्म का बंध होता है । उसका बीज 'मिथ्यात्व' है। एक सिर्फ मोहनीय कर्म ही बंध में विषचक्र घोलता है । भगवान ने कर्म के बंध में, उदय में, कर्म की सत्ता में, तीनों में पुरुषार्थवाद की स्थापना की है।
5 निमित्त मुख्य रुप से कर्म के उदय में महत्व रखते हैं । (1) द्रव्य, (2) क्षेत्र, (3) काल, (4) भाव, (5) भव।
भाव का प्रभाव विशेष तीव्र और भव का प्रभाव अत्यन्त उत्कृष्ट होता है। संक्रमणकरण :-शुभ को अशुभ में या अशुभ को अशुभ का रुपांतर होना।
संक्रांति - एक दूसरे में रुपांतर करना, बंधे हुए कर्म की शक्ति (रस) का रुपांतर, बंधे हुए कर्म की प्रकृति का रुपांतर । बंधे हुए अपयश को यश में करण द्वारा परिवर्तन।
सामान्य रूप में बड़े भाग के जीव पुण्य व पाप में ही रूपांतर करते हैं ! कारण ? उनका पुरुषार्थ ही विपरीत दिशा में होता है।
भौतिक सुख एवं दुःख का गणित, सम्यक् आंतरिक पुरुषार्थ से दूर ही रखता है। धर्म द्वारा भौतिक सुख की इच्छा करने वाले की बुद्धि भ्रष्ट है, ऐसा ज्ञानी कहते हैं (निदान शल्य)
* जो और जैसे परिणाम से अशुभ कर्म बंध हों वह और वैसे ही समान रुप से शुभ परिणाम बनते हैं तो अशुभ को शुभ में रुपांतरित कर सकता है। * एक ही भव के तीव्र शुभ भाव अनेक भवों के अशुभ कर्मों को शुभ में परिवर्तन
करने में सक्षम है। Vice aVersa * संसार की रसिकता सघन कर्मबंध कराती है । अल्प क्रोध भी भयंकर बड़ा पाप
बंधा देता है । वैराग्य युक्त जीव बड़े क्रोध से भी अल्प पाप बांधता है । वैराग्य
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