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30. संसार के सभी वैभवयुक्त पद - स्थान (Position) समकित दृष्टि के लिए जमा है, सुरक्षित ( Reserve) हैं।
31. समय पर भूख लगना, समय पर खाना मिलना, पचने के बाद समय पर फ्रेश होने जाना, यह सब पुण्य से ही हो सकता है, अरे ! बिस्तर में करवट लेना भी पुण्य के प्रताप से ही होता है ।
32. कर्मराज महाबलवान को निर्बल, महाबुद्धिशाली को बेवकूफ, महाधनाढ्य को भिखारी और महारूपवान को कुरुप बना सकता है ।
33. पुण्य कर्म के उदय से मिली हुई शक्तियों का जीव जो दुरुपयोग करता है तो वे शक्तियाँ प्रकृति वापस खींच लेती है । जो सदुपयोग करता है तो प्रकृति, पर भव में पुन: देती है । 34. गुनाह करता है और फिर गुनाह को अच्छा मानें, उसको प्रकृति दंड देती है ।
35. सम्यगदृष्टि गुस्से में हो तब भी वैमानिक देवलोक का ही आयुष्य बंध करता है । यह सम्यग्दर्शन का प्रभाव है ।
36. जैन कुल के कुलाचारों को भी परिणाम पूर्वक पालन करने वाला जीव, कभी संभवतः तात्विक वैराग्य, श्रद्धा प्राप्त न की हो फिर भी 99.99% सद्गति में ही जाता है ।
37. नयसार के जीव ने उच्च विवेक शक्ति और वैराग्य द्वारा उच्च पुण्य का बंध किया। 38. भाव दया अर्थात् आत्मा के सुख-दुख की चिंता । स्व आत्मा की चिंता करना (होना) वह स्वार्थ ही, वास्तव में परमार्थ है ।
39. आत्मा के कल्याण में जगत का कल्याण है, कारण यह है कि एक जीव मोक्ष में जाता है, अर्थात् अनंत जीवों की अहिंसा, दया, मैत्री आदि होती है । स्व-कल्याण को भूल कर जो पर-कल्याण में लग जाता है वह जीव अधर्म करता है ।
40. स्व की भावढ्या करने वाला ही अन्य की भावढ्या करने का अधिकारी बनता है । भावढ्या में सदा के आत्मिय दुःख भी दूर हो जाते हैं । तीर्थंकर की भावढ्या पराकाष्ठा की श्रेणी की है ।
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