________________
©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©® 20. धर्म का अज्ञान ज्ञानावरणीय सघन कर्म नहीं । परन्तु वह लक्ष्यपूर्वक तोड़ने के पुरुषार्थ
की कमी ही कारण रुप है। 21. पुण्य-पाप का बंध, संग्रह, उदय और क्षय एक साथ अलग-अलग हो सकते हैं। 22. सम्पूर्ण उपाधि का मूल शरीर है, शरीर यह आत्मा का महाबंधन है। 23. निकाचित कर्म यानि समुचित पुरुषार्थ करने के बाद भी जो नहीं टूटे वह ।
अशुभ निकाचित होने के कारण - दोष की तीव्र रुचि ।
शुभ निकाचित होने के कारण - गुण की तीव्र रुचि । 24. सभी कर्मों का उदय निमित्त की अपेक्षा रखते हैं।
अनुकूल (Favourable) निमित्त कर्म फल देता है । प्रतिकूल (Unfavourable) निमित्त - कर्म के समान फल देता है । इसलिए कर्म के निमित्त को तोड़ सको तो उसके
हाथ-पैर टूट जाएंगे तो कर्म योग्य विपाक नहीं बता सकेगा। 25. नास्तिक की विशेष दया से आस्तिक की अल्प (कम) दया बहुत उच्च पुण्य बंधाती है। 26. पाप की प्रवृत्ति होती है तो ही पाप कर्म बंधता है, ऐसा नहीं है, पाप के परिणाम आत्मा में
निरन्तर रहे हुए हैं, इसलिए सतत पाप कर्म बंधते हैं।
उदा. नींद में हिंसा की प्रवृत्ति नहीं है, परिणाम है, इसलिए हिंसा योग्य पाप बंधते हैं। 27. जड़ कर्म-चेतन आत्मा में विकृतियाँ उत्पन्न करता है । इसलिए जड़ कर्म आत्मा के रोग
का मुख्य कारण है। 28. सिर्फ मानव की या प्राणी की दया के आचरण के बदले जीव मात्र की दया का भाव, ____ आत्म परिणाम की रुचि से, उच्च कोटि का पुण्य बंधाता है। 29. आजीवन महानीति-सदाचार पालन करने वाला भी पूर्ण दया की रुचि के बिना सातमी
नरक में जाता है। उदा. चक्रवर्ती
७050505050505050505050505090253900900505050505050090050