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कर्मवाद कणिकाएँ
- प. पू. गणिवर्य युगभूषणविजयजी म.सा.
1. कर्म नाम की महासत्ता हमारी प्रत्येक घटना का व्यवस्थित संचालन करती है ।
2. कर्मबंध भाव प्रधान है परिणाम निरपेक्ष बंध नहीं हो सकता ।
3. संसार में भाग्य की प्रधानता है । पुरुषार्थ गौण सहयोगी कारण है । धर्म में पुरुषार्थी की प्रधानता है। सद्गति आदि सामग्री पूर्ति ही पुण्य कर्म की आवश्यकता है ।
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4. जहां राग-द्वेष रुपी चिकनाहट होती है; वहाँ कर्मरुपी पदार्थ का चिपकना प्रकृति का गुणधर्म है । जैसे अग्नि का स्वभाव जलाने का है, चंदन का स्वभाव शीतलता का है, उसी प्रकार आत्मा में राग-द्वेष की परिणति रुप चिकनाहट होने से, सहज स्वभाव से कर्मवर्गणा आत्मा पर चिपकती है और फिर उसके अनुरुप योग्य विपाक बताती है । 5. पुद्गल की शक्ति जड़ता युक्त है । आत्मा की शक्ति पुद्गल की शक्ति पर अपना संपूर्ण वर्चस्व जमा सकती है ।
6. आत्मा का पुद्गल के प्रति आकर्षण ही जड़ रुप कर्मों को आत्मा पर चिपकाता है ।
7. संवेदना चेतन का लक्षण है, वैज्ञानिक संवेदनशील संवेदनयुक्त यंत्र बना सके ऐसा नहीं है । 8. 'राग' कर्म को आकर्षित करने के लिए चुंबक जैसी शक्ति है ।
9. जीवन के पूर्वार्ध में पुरुषार्थ, बुद्धि की तीव्रता होते हुए धन प्राप्ति में असफलता । इस का कारण ? भाग्यवाद !
10. कर्म का समूह निश्चित करने वाली भी क्रिया है (आत्म प्रदेश का स्पंदन, कंपन), कर्म का बंध ( रस, प्रकृति, स्थिति), निश्चित करने में आत्मा का परिणाम है, लेश्याअजागृत (लब्धि) मन रुप अध्यवसाय 'रस' निश्चित करता है ।
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