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* स्वाध्याय करो, निर्जरा का कारण है । अभ्यंतर तप है ।
* शुभ बंध - अशुभ बंध मानव के हाथ में है, मन-वचन-काया पर जितना कंट्रोल कर सको (गुप्ति) उतना तुम्हारा कल्याण है । घर में धूल क्यों आई क्योंकि खिड़की-द्वार खुले रहे, इसलिए ।
आठ कर्म के बंध का मूल कारण लेश्या है । लेश्या कर्म का पिता है ।
* आश्रव को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से विचारो ।
मकान, ईंट, चूना, पत्थर से बना हुआ द्रव्य है । इसको अपना मानते हो । जड़ है, किन्तु मोहनीय कर्म के उदय से अपना मानते हो ।
मेरा क्या ? आत्मा का गुण पर्याय ही मेरा है, आत्मा और उसकी ज्योति, ज्ञान के अतिरिक्त किसी को अपना नहीं मानता । किस क्षेत्र, काल में हो, जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग जिस कर्म बंध का कारण है, उसको पुष्ट करने में मदद रूप होता है । और आत्मा में इसके कारण कैसे भाव, शुभाशुभ भाव, शुभाश्रव - पुण्य रुप या अशुभाश्रव - पाप रुप बनते हैं ।
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18 पापस्थानक से विचार करो, उससे 18 पाप स्थानक से कार्य कारण भाव है । तर्क से या श्रद्धा से जहाँ गम्य होता है, ईष्ट होता है उसके प्रमाण से आश्रव का विचार करो । जड़ में जो जीव, प्रवृत्ति करता ही नहीं तो आश्रव होता ही नहीं ।
मोक्ष में भवितव्यता नहीं, लेश्या नहीं, विचार नहीं, अध्यवसाय नहीं, संसार में योग के कारण विचारों से, अध्यवसाय से लेश्या से कर्मबंध होते हैं ।
योग और अध्यवसाय का बल इसके 'करण' आठ है; बंधन, निधत्त, निकाचना, उद्वर्त्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उदीरणा, उपशमन ।
Lastly - Very important aspect :
निमित्त अशुभ मिला - आसवद्य अध्यवसाय उत्पन्न हुआ । मोहनीय कर्म उदीरणा में पहुंचने लगा - सचेत हो जाइए। मन, वचन, काया को उसमें से पीछे खींच लो ।
दो मिनिट किया हुआ क्रोध का विपाक दीर्घ समय तक भोगना पड़ता है। छोटी सी भूल
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