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ऐसा क्यों ? आत्मा को कर्म का बंध है, कारण आत्मा परिणामी द्रव्य है । कर्म बंध में मुख्य कारण राग-द्वेष है, जो संसारी जीव को होता ही है और सिद्ध जीवों को नहीं होता।
इसलिए कहा है - मुनि स्थिर रहे ! मन, वचन, काया की चंचलता छोड़नी पड़ती है। जहाँ आत्म प्रदेश का कंपन है, वहाँ तक कर्म का बंध है। अत: 14वें गुण स्थानक में कर्म का बंध नहीं है।
योग है वहाँ तक ‘लेश्या' है । मनोयोग के परिणाम जो आठ कर्म के रसबंध का मूल कारण है।
यह समझना चाहिए कि कर्म की चाबी हमारे हाथ में है । जीव को मोक्ष की अवस्था अज्ञान के कारण से नहीं मिलती।
* त्रसजीव - त्रस स्थिति में 2000 सा. से अधिक नहीं रह सकते । पंचेन्द्रिय जीव 1000 सा. से अधिक नहीं रह सकते। मनुष्य भव लगातार 7 बार ही मिलता है।
* आश्रव तत्व मुख्य है । उसके कारण अन्य तत्व खड़े हो जाते हैं और निर्जरा, संवर और मोक्ष की बात उसके कारण ही है । आश्रव तत्व का ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण है।
* उदय में आए हुए कर्मों को जीव समता से भोगे तो नए कर्म नहीं बंधे । नए कर्मों का आश्रव नहीं होता।
आत्मा की प्रकृति ही मोक्ष है, विकृति संसार है। प्रश्न - क्या करने से विचारने से आश्रव' कम होता है ? या रुकता है ? * हेय पदार्थ का चिंतन करो : पाप, आश्रव, बंध। * ज्ञेय-पदार्थ को जानो :जीव - अजीव । * उपादेय - पदार्थ को प्राप्त करने का प्रयास करो : पुण्य, संवर, निर्जरा, मोक्ष। * मन को अच्छे कार्य में रोको।
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