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नौ तत्वों में ‘आश्रव' तत्व का समावेश मुख्यत: जीव को सावधान करने के लिए किया है । तत्व - मोक्ष का सहज रूचि भाव रहे, जिसका चिंतन सकाम निर्जरा कराती है ।
तत्व का ज्ञान - चारित्र धर्म का शरीर । तत्व का अज्ञान - मोह का शरीर । 'आश्रव' क्या है ? 'जीव में शुभाशुभ कर्म का आना वह आश्रव'
उमास्वाति भगवंत ने तत्वार्थाधिगम सूत्र के 6ठें अध्याय में 'आश्रव' पर विवेचन किया है । उसके प्रथम सूत्र का अर्थ करते हुए बताया है कि मन, वचन और काया के योग से की हुई क्रिया ही आश्रव है। जहां योग वहां आश्रव ।
'योग' : किस कारण से होता है ? वीर्यांतराय के क्षयोपशम से अथवा क्षय से होता है । कुछ भी बोलो, मन से विचार करो या काया से चेष्टा करो उसके सामने नियमा कर्मबंध है वह शुभ या अशुभ हो सकते हैं । जीव नियमा, सतत कर्म बंध करता ही रहता है । आत्म प्रदेश में योग के कारण कंपन होता है और वो होता ही रहता है उसको 'आश्रव' कहते हैं । उस प्रक्रिया को जानना अति आवश्यक है और उसके सामने सावधानी रखना भी अति आवश्यक है ।
अनादिकाल से जीव का चलते रहने वाला संसार 'आश्रव' के कारण से ही टिका हुआ है । आत्मा के साथ कर्म का संबंध 108 पृथक-पृथक रूप से होता है । आश्रव 108 कारण से होता है ।
सरंभ : प्रमादी जीव के हिंसा आदि कार्य के लिए प्रयत्न का आवेश ।
समारंभ : यह कार्य करने के लिए साधन एकत्रित करना ।
आरंभ : अंत में कार्य को अंजाम देना ।
3x मन, वचन, काया = x 3 करना, कराना और अनुमोदन करना = 3x4 कषाय । बंध-संबंध : कर्म का आत्मा के साथ दूध पानी के समान मिश्रित होना वह बंध और कार्मण वर्गंणा का आत्मा द्वारा ग्रहण होना वह संबंध ।
सिद्ध के जीवों के निकट कार्मण वर्गणा होते हुए भी उसका प्रभाव कारक संबंध भी नहीं और बंध भी नहीं । हमें संबंध भी है और बंध भी है ।
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