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हम निमित्तों के बीच जी रहे हैं, किन्तु Face किस प्रकार करोगे ? राग-द्वेष के बिना, इसलिए स्थितप्रज्ञ होना है । अनुकूलता हो या प्रतिकूलता, दोनों में समभाव से रहना ही स्थितप्रज्ञ होता है।
प्रथम तत्व का निर्णय, फिर तत्व का पक्षपात - यहाँ सम्यग्दर्शन होता है। उसके बाद हेय और उपादेय के तरीके का सेवन।
प्रथम सुश्रूषा (जिज्ञासा), फिर श्रवण, पश्चात् ग्रहण ।
तत्व का अज्ञान ये मोह का शरीर जिसकी करोड़ रज्जु (Backbone) 18 पाप स्थानक हैं। आत्मा की प्रकृति मोक्ष है। आत्मा की विकृति संसार है।
संसार में पराधीनता तो देखो, जीव को कुछ भी करना हो तो पुद्गल का मुख देखना पड़ता है । बोलना है ? भाषा वर्गणा के पुद्गलो की आवश्यकता रहती है । विचार करना है तो? मनोवर्गणा पुद्गलों को अलग करने पड़ेंगे। ___ संसार में जीव परतंत्र है । मोक्ष में जीव स्वतंत्र । जीव के मनोयोग के समय जो परिणाम आते हैं वे भाव लेश्या हैं। 13वें गुणस्थानक तक, भावलेश्या रहती है। फिर जीव अलेश्या रूप हो जाता है । कारण वहां मनोयोग के परिणाम नहीं है।
जहां तक योग होता है वहां तक लेश्या रहती है । राग-द्वेष नहीं हो और मनोयोग के परिणाम हो तो परम शुक्ल लेश्या समझना, राग-द्वेष नहीं होता - उस भाव को माध्यस्थ भाव कहा है और तब 'निर्जरा होती है।
औदासिन्य = राग द्वेष रहित = माध्यस्थ भाव । व्यवहार नय प्रमाण से माध्यस्थ भाव, अपूनर्बंधक अवस्था से प्रारंभ होता है। निश्चय नय प्रमाण से पांचवे गुणस्थानक से प्रारंभ होता है।
अपुनर्बंधक अवस्था : जीव की मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की 70 क्रो.क्रो. सा. की स्थिति का पुन: बंधन न हो वह योग्यता । जीव अब उत्कृष्ट स्थितिवाला मोहनीय कर्म बांधेगा ही नहीं। आध्यात्म का पहला अंक शुरु हुआ ऐसा कहा जाता है।
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