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जीव ज्ञानात्मक और प्रकाशात्मक है इससे मोक्ष अवस्था में ज्योति में ज्योति मिल जाती है, उसी प्रकार एक ही आकाश प्रदेश पर अनंत सिद्धो के आत्मप्रदेश रह सकते हैं।
सिद्ध जीवों के निकट कार्मण वर्गणाएँ होते हुए भी वहाँ कर्मबन्ध या संबंध नहीं है । कर्मवर्गणा का आत्मा द्वारा ग्रहण उसके संबंध कहा है । आत्मा के साथ दूध पानी सा संबंध होना वह बंध । आत्मा अशुद्ध दशा में होने के कारण ऐसा होता है।
स्पृष्ट = स्पर्शबंध, बद्ध = बंधन (स्पर्श को पोषण मिलना), निधत्त = अनुमोदना की इससे कर्म बंध हुआ, निकचित = रचा-बसा हो गया (पूर्ण आसक्ति) । गुनाह की स्वीकृति ही होती है, वकालात नहीं । पाप की अनुमोदना ?
हम संसारी जीव हैं, जो आकाश प्रदेश में हैं तो इसी आकाश प्रदेश पर कर्मवर्गणा भी है। किन्तु उसे ग्रहण कर रहे हैं। आत्मा परिणामी है। अत: कर्मबंध है।
तत्व के अज्ञान को मोह का शरीर कहा है, तो तत्व के ज्ञान को चारित्र धर्म का शरीर कहा है । इसलिए तत्वज्ञान के अतिरिक्त संसार से किनारा नहीं है।
योग और कषाय : जहाँ-जहाँ योग, वहाँ-वहाँ कंपन (आत्म प्रदेश का)। कंपन है तब तक कर्म का बंध है । (कंपन कैसे होता है ? वीर्यांतराय के क्षयोपशम से) राग-द्वेष की जितनी तीव्रता होगी उतनी ही कर्मबंध की भी तीव्रता रहेगी।
जहां चंचलता है वहाँ कर्मवर्गणा चिपकती ही है।
योग है वहाँ तक लेश्या है । (मनोयोग का परिणाम - रसबंध का मूल कारण) जहाँ चंचलता है वहां लेश्या होती ही है।
* यदि समझें तो मोक्ष की चाबी हमारे ही पास है । हमारे हाथ में है । अज्ञान के कारण मोक्ष होता नहीं है । जीव, दर्शन, मोहनीय आदि कर्म उदय के कारण मोक्ष का उपाय समझ नहीं पाता, उसके लिए प्रयास नहीं करता और इसलिए भटकता रहता है।
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