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®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®@GOOG मन को अच्छे स्थान पर रोको, स्वाध्याय करो, निर्जरा होगी। आठ कर्मों के बंध का मूल लेश्या है । लेश्या कर्म का पिता है। आश्रव को द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव, भव से विचार करो, 18 पाप स्थानक से विचारो। उदय में आए हुए कर्म में नए कर्म बंध की शक्ति होती है वह है अनुबंध । दुःख आया : पाप कर्म का उदय । सुख आया : पुण्य कर्म का उदय । दुःख से दुर्जनता भयंकर। सुख से सज्जनता श्रेयस्कर।
आश्रव और अनुबंध
- प. पू. मोहजीत विजयजी म.सा. की पुस्तक से उद्धृत अपना कर्मवाद प्राकृतिक न्याय पर रचित है । जैसा विचार करो बोलो या चेष्ठा करो, उसके सामने निश्चित कर्मबंध है।
अज्ञान, राग-द्वेष ये आंतरिक मूल बीज हैं। पुराने कर्मों से राग द्वेष होता है और उनसे फिर नए कर्म बंधते हैं । ये घट माल अनादि से है । इनसे छुटकारा पाने के लिए नवतत्व का ज्ञान आवश्यक है। ___ 14 राजलोक में ढूंस-ठूस कर कर्मवर्गणा भरी हुई है - वही लोक स्थिति है । एक प्रकार के निश्चित नियम का अनुसरण करते अनिवार्य घटनाएँ होती हैं, जिसको तीर्थंकर देव भी बदल नहीं सकते।
जहाँ परस्पर उपधात (टकराहट) होती है वहाँ अवकाश (Space) का प्रश्न उपस्थित होता है । अत: एक स्थान पर दो वस्तु नहीं रह सकती है । सिद्धशीला के ऊपर सिद्ध जीवों में परस्पर टकराहट नहीं है । यानि, शुद्ध द्रव्य जीव एक ही स्थान पर अनंत संख्या में रह सकते हैं। जहाँ बादर (स्थूल) परिणाम होता है वहीं टकराहट होती है । सूक्ष्म परिणामी द्रव्य में टकराहट (उपघात) नहीं होती । अचित महास्कंध (धर्मास्तिकाय आदि) सूक्ष्म परिणामी होते हैं। 9090GOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGO90 23690GOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGGC