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TUJUHUUUUUUUUUUUUUUUG 4. भगवान के वचनों में शंका करे तो समकित जाता है, सांशयिक मिथ्यात्व । मरीचि के
भव में समकित खो दिया। 16वें भव में फिर प्राप्त किया। 5. अनुपयोग दशा, अज्ञानता, विवेक का अभाव, समझ का अभाव, अनाभोगिक मि. ।
कीड़ी-मकोड़ा, पशु-पक्षी, कितने कुछ अज्ञानी मानव। * कर्म 4 द्वार से आत्मा में प्रवेश करते हैं
(1) मिथ्यात्व, (2) अविरति, (3) कषाय और (4) योग।
जैन दर्शन में सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद ही प्रवेश हुआ कहा जाता है और यहाँ से ही भव की गणना प्रारंभ होती है।
* उत्सूत्र वचन महा पाप है। * सुसूत्र वचन महा धर्म है।
समकित प्राप्त करने के लिए क्रोध (कषाय), काम वासना, आसक्ति आदि दोष से सचेत रहना पड़ता है।
5 प्रकार का मिथ्यात्व चला जाय और समकित आये तब पहला द्वारबंध होता है। शेष 3 द्वार खुले ही रहते हैं। सर्वविरति आने पर शेष दो द्वार खुले रहते हैं।
अविरति का द्वार थोड़ा कुछ बंद होता है, वह देशविरति । विरति अर्थात् पाप से बचना । सभी पापों से बचना वह है सर्व विरति।
अविरति के 12 प्रकार - पृथ्वी काय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रस काय, छः हिंसा से बच जाना वेछः प्रकार हैं + 5 इन्द्रिय और मन की अविरति ।
* गृहस्थ जीवन में पाप न करना और न कराने की प्रतिज्ञा, परन्तु पाप की अनुमोदना तो चालू ही रहती है।
* राग आग जैसा है, द्वेष धुंए जैसा है। * आग बिना धुंआ नहीं होता उसी प्रकार राग बिना द्वेष नहीं होता। * लोभ (आसक्ति) को सभी कषायों का मूल कहा है, वह 10वें गुण स्थानक के अंत में
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