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आत्मा में राग, द्वेष, विषय, कषाय आदि दोषों की तीव्र मंदता को परिणति कहा जाता है । मन, वचन, काया के विचार उच्चार आचार की प्रवृत्ति और परिणति, आत्मा में चुंबकीय शक्ति पैदा करती है, जो कार्मण वर्गणा को आकर्षित करके स्वयं पर चिपकते कर्म बनते हैं। अर्थात् कर्म बंध होता है उस समय उसमें प्रकृति, स्थिति रस, प्रदेश निश्चित होते हैं।
मिथ्यात्व 18वाँ पापस्थानक है। उसके कारण आगे के 17 पाप होते रहते हैं । मिथ्यात्व जब तक समाप्त नहीं होता तब तक समकित प्राप्त नहीं होता।
समकित को तुम क्या करते हो ? उसके साथ जुड़ाव (Connection) नहीं किन्तु तुम क्या मानते हो? तुम्हारी मान्यताएँ क्या हैं ? उसके साथ जुड़ाव है।
परमात्मा के साथ एकता वह सम्यक्त्व । विलग होना वह मिथ्यात्व । विरति (त्याग, पच्चक्खाण आदि) का उच्चारण, आचार के साथ संबंध है । आचारों में परमात्मा के साथ एकता वही सर्वविरति है। * 5 प्रकार का मिथ्यात्व 1. मेरा सो सच्चा - हठवादि, दसरे की किसी की बात मानने को तैयार ही नहीं । सच्चा सो
मेरा नहीं, मैं ही सत्य हूँ और सभी असत्य । आभिग्राहिक मिथ्यात्व । 2. सभी धर्म अच्छे हैं, ऐसी विचारणा, अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व । सर्व धर्म समभाव नहीं
सर्वधर्म सहिष्णुभाव चाहिए। 3. भगवान की सभी बातें मानें किन्तु एकाध ही न माने वह अभिनिवेशिक मि.।किया गया
हो तो करा हुआ कहा जाएगा। व्यवहार भाषा का भगवान का वचन, “कडे माणे कडे" जमाली जो जमाई था उसने यह वाक्य माना नहीं। हठवादी होकर मिथ्यात्वी हो गया। उत्सर्ग और अपवाद अपने-अपने स्थान पर समझकर उपयोग करना चाहिए । भगवान के सामने अपना बल दिखाने वाला निह्नव कहलाता है । निह्नव अर्थात् भगवान के सिद्धांतों को गोपनीय करने वाले (भगवान के सिद्धांत को अपने तरीके से बताने वाला) 8 निह्वव बताये हैं । जमाली प्रथम निह्वव था । प्रभु ने जो कहा वह करने का है, उन्होंने किया वह करने का आग्रह नहीं करना।
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