SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ JUGGUGUGUGGUGGGGGG * जहां नए कर्म बंधे होते हैं वहां दुर्गति, जहां बहुत सारे कर्म नाश होते हैं वह सद्गति। * देव गति के और नरक गति के जीव चौथे गुणस्थानक से आगे नहीं जा सकते हैं। तिर्यंच गति के जीव पांचवे गुणस्थानक से आगे नहीं जा सकते। * सात लाख सुत्र का क्रम गुणस्थानक के आधार पर बनाया गया है, ऐसा लगता है। समकित * समकित अर्थात् हृदय परिवर्तन, विरति यानि जीवन परिवर्तन । हृदय परिवर्तन के बिना जीवन ‘आभास मय' ही रहता है । जीवन परिवर्तन अधिक समय नहीं रहता । भगवान की बताई हुई सभी बातें हृदय से स्वीकार कर ली जाए तो समकित है अन्यथा वह मिथ्यात्व है। * समकित प्राप्ति से पहले 6 अवस्था से गुजरना पड़ता है । (1) द्विबंधक, (2) सुकृतबंधक, (3) अपुनर्बंधक, (4) मार्गाभिसुख, (5) मार्गपतित, (6) मार्गानुसारी। मोहनीय कर्म की उ. स्थिति 70 क्रोड़ा क्रोड़ी सागरोपम की स्थिति । दो से अधिक बार नहीं बांधे वह द्विबंधक। मोहनीय कर्म की उ. स्थिति एक ही बार बांधने वाला सुकृत बंधक । एक बार बांधने के बाद फिर मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधे वह अपुनर्बंधक। मोक्ष मार्ग की तरफ जो दृष्टि रखता रहे वह मार्गाभिमुख। उसके बाद मोक्ष मार्ग पर जाकर खड़ा हो जाए वह मार्ग पतित। जब मोक्ष मार्ग का अनुसरण कर लेता है तो मार्गानुसारी बन जाता है । उसके बाद ही समकित की प्राप्ति होती है। मोहनीय कर्म का मिथ्यात्व मोहनीय कर्म ही 70 क्रो.क्रो. सागरोपम की स्थिति वाला बंध सकता है । इसलिए मिथ्यात्व जैसा कोई दोष नहीं। G@GOG©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®@ 231909©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy