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IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII स्वयं की मांग ही सुख की है । जीव को अधूरा, अल्प, अजनबियों की तरह अशुद्ध, पराधीनतमा मय, विकारयुक्त, विनाशयुक्त जीना अच्छा नहीं लगता।
संपूर्ण या अपूर्ण, जो प्राप्त नहीं हुआ और हुआ वो कम है, दोनों की मांग चालू रहती है। जीव स्वरूप से पूर्ण है तो इसीलिए वह पूर्णता ही चाहता है। बाजार में खरीदी करने जाते हो तो पुराना, फटा हुआ, तड़क आई हुई - यानि चिराया हुआ, घिसा-पिटा, जो पूरी तरह जीर्णक्षीर्ण लगने वाला-चाहे कपड़ा या अन्य वस्तु हमें अच्छी नहीं लगती । शालिभद्र के पास अनगिनत ऋद्धि थी, अकल्पनीय वैभव था, फिर भी उनके ऊपर श्रेणिक राजा बैठा है, उसका अपने ऊपर अधिकार उनको अच्छा नहीं लगा और संसार का त्याग कर दिया, भगवान महावीर का स्वामित्व स्वीकार कर लिया। जीवन का वास्तविक सुख पूर्णता में ही है। __ अंग्रेजो के शासनकाल में जनता सब तरह से सुखी थी किन्तु गुलामी थी परतंत्रता थी। स्वतंत्रता के बिना जीव शांति से नहीं बैठता।
__ सर्व परवंश दुःखं, सर्वात्मवंश सुखम् । पर-पदार्थ के संयोग से प्राणी को जो वेदना होती है वह आत्मा का विकृत स्वरुप है। इसलिए दुःख रुप है। किन्तु पर -पदार्थ यदि आत्मा परिणाम का स्व संवेदन कराता है तो वह सुख है । इसलिए कहा है
'स्व मां वस, परथी खस' * अविकारी अविनाशी या विकारी विनाशी ?
जीव कैसा भी हो, मृत्यु कोई नहीं चाहता, अमृत - अमरण को ही हम चाहते हैं। * प्रभु के सामने 'अक्षत' से आलेखन करते समय स्वस्तिक में
ज्ञानियों ने अपूर्व ज्ञान गर्भित मांग रखी है ? Decode It और हम उनकी बलिहारी जाते हैं। * सर्वोच्च या सामान्य सुख ?
___Marathon Race आज हम सभी को अच्छे से अच्छा Exclusive Paramount प्राप्त करने की चाह है । (आलतु फालतु) अव्यवस्थित-जो काम में न आ सके ऐसी कोई वस्तु हमें अच्छी नहीं लगती। GOOGOGOGOGOGOGOGOGOGOOGO90 20290GOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGOGe