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11वें 12वें में गुणस्थानक में भावमन जो अशुद्ध चेतना है उसका क्षय होने पर वीतरागता प्रकट होती है । इसलिए अरिहंत को भावमन होता ही नही । याद रखना भावमनमोहात्मक चेतना । अरिहंत को ज्ञानात्मक चेतना जो आत्मा का स्वभाव है, वह होती ही है ।
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11वें गुणस्थानक में भी वीतरागता है; वहाँ मोहात्मक भाव नहीं है, जिससे उसको अमनस्क योग कहते हैं । 11 वें गुणस्थान में कषाय शक्ति रुप है, व्यक्त रुप नहीं । 11वें गुण स्थानक में वीतराग को आसक्ति व्यक्त रूप नहीं - शक्ति रुप में है । इसीलिए वे अपने भावों से नीचे गिर जाते हैं ।
राग की दशा में अंतर है । कोई राग अभिव्यक्त होता है किन्तु उसे कोई निमित्त नहीं मिला इसलिए तो खड़ा नहीं हुआ किन्तु अंदर हृदय के तहखाने में दबा हुआ है जैसे राख में अंगारे छिपे होते हैं । भविष्य में उत्पन्न हो सकते हैं यह उनकी शक्ति है ।
आत्मा देह से भिन्न है, मन और आत्मा एक नहीं, अलग है ।
देह आत्मा से भिन्न है ।
मन आत्मा से भिन्न है ।
इन्द्रियाँ आत्मा से भिन्न हैं ।
* चित्त, मन, बुद्धि, मस्तिष्क (दिमाग) इस सभी शब्दों का अर्थ समझिए ।
चित्त = मन
मन = चित्त
बुद्धि =
मस्तिष्क (दिमाग) = मन:पर्याप्ति ।
बुद्धि, मन का अविभाज्य अंग है । जैन दर्शन मन और चित्त को अलग नहीं मानता । मन शुद्धि हो और आत्म शुद्धि न हो तो, चाहे मन शुद्धि कितनी ही क्यों न हो उसका कोई मूल्य नहीं । आध्यात्म शुद्धि अर्थात् आत्मशुद्धि ।
= मन का अविभाज्य अंग
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