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* विवेक :- विशेष प्रकार से जीव- अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव-संवर, बंध - निर्जरा, मोक्ष । इन 9 तत्वों को जानना, श्रद्धा रखना और आचरण में लाने का प्रयास करना । वह विवेक कहलाता है । इससे त्याग करने योग्य पदार्थों का तथा क्रियाओं का त्याग होगा ओर मन, वचन, काया, अरिहंत देव के धर्म के प्रति जुड़ जाएगी ।
* व्युत्सर्ग :- शरीर और इन्द्रियों का व्युत्सर्ग करना अर्थात् काया की माया छोड़ कर मन, वचन और शरीर को घंटे या आधे घंटे के लिए ध्यान एवं जाप में लगाना, जिससे अनादिकाल से शरीर के प्रति जो मोह है वह कम हो जाए ।
* निंदा और गर्हा :- किए पापों की निंदा करना, विशेष प्रकार से निंदा करना, गुरु की साक्षी से पापों की निंदा और गर्हा ( घृणा पश्चाताप ) करने वाला साधक पाप एवं पाप कर्मों से मुक्त हो जाता है ।
* आधा कर्म :- साधु को वोहराने के उद्देश्य से फल-सब्जी आदि अचित करना सचित वस्तु पकाना । साधु के लिए मकान निर्माण करवाना, कपड़े बनवाना, गोचरी तैयार करवाना, ऐसा कोई भी आरंभ की क्रिया (साधु के लिए) वह आधा कर्म कहा जाता है। साधु के लिए ही जो खास वस्तु तैयार की गई हो जिसमें आरंभ लगा हो वह आधा कर्मी कहा जाता है ?
ईर्यापथिक एवं सांपरायिकि क्रिया :
ईर्या :- जाना, पथ = मार्ग, अर्थात् जो जाने का मार्ग है वह ईर्या पथ कहलाता है, उसमें होने वाली 'क्रिया' वह ईर्यापथिकि क्रिया- यानि मात्र शरीर के व्यापार से होने वाले कर्मबंध ।
जिसके द्वारा प्राणी संसार में भ्रमण करता है वह संपराय अर्थात कषाय ! उन कषायों से जो क्रिया होती है वह सांपरायिकी यानि कषायों से होने वाले कर्मबंध ।
ईर्यापथिकी क्रिया का कारण अकषाय है । कषाय से निवृत्ति । सांपरायिकि क्रिया का कारण कषाय है । कषाययुक्त स्थिति । दोनों परस्पर विरोधी क्रिया की उत्पत्ति एक ही समय एक ही जीव में नहीं हो सकती ।
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