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जीवों को सभी को एक समान सुख होता है। कम या अधिक नहीं । मिलने के बाद कभी जाता नहीं है और दुःख कभी आता ही नहीं । उन आत्माओं को अनंत सुख है ।
4. स्वतंत्र बनने की इच्छा :- पराधीनता अच्छी नहीं लगती । बाह्य स्वतंत्रता मिलने के बाद भी शरीर का बंधन ही ऐसा है कि शरीर के लिए रोटी, पिज्जा, पाव भाजी चाहिए। पैसा चाहिए । जहां तक शरीर है वहां तक पराधीनता रहेगी ही । अशरीरी बनिए तो ही स्वतंत्रता पूरी मिलेगी ।
5. सभी मेरे अधीन रहें :- इस इच्छा की तृप्ति के लिए संसार में अनेकों युद्ध हुए, तो भी इच्छा पूरी नहीं होती । केवलज्ञानी की एक ही अवस्था है जिसमें 1000 वर्ष बाद भी यह कार्य होगा यह स्थिति होगी । ये उन्होंने ज्ञान में देखा है और ऐसा ही बनाव बनता है । सकल विश्व को एक अपेक्षा से केवलज्ञानी ने देखा है । उसी अनुरूप चलता है, अत: केवलज्ञानी बनिए जिससे अपने ज्ञान के अधीन सारा विश्व चलता है ।
इस प्रकार अपना मूल रुप अनंतज्ञान, अव्याबाध सुख, अनंत आनंद, अनंत शक्तिमय और शाश्वत है वह प्रकट होता है तभी सारे प्रयोजन सिद्ध होते हैं । इसलिए परम ध्येय लक्ष्य है, आत्म स्वरुप प्रकट करना । इतना लक्ष्यांक करके साधना होती है उसको 'प्रणिधान ' कहते हैं । आत्मस्वरुप के अनुभव का परम आनंद अंत में सर्व कर्मों का क्षय करने में निमित्त बनकर मोक्ष प्राप्त करवाता है ।
द्रव्य और भाव से शुद्धि थी इसलिए श्रीपाल राजा की सर्व आराधना सफल हुई । निश्चय और व्यवहार दोनों नय एक ही रथ के दो पहिये हैं। दोनों की आवश्यकता है ।
निश्चय दृष्टि हृदये धरी, पाले जे व्यवहार,
पुण्यवंत ते पामशे, भव समुद्र ने पार ।
* अरिहंत उपकार के भंडार हैं,
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