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योग के ८ गुण 1. अद्वेष :- द्वेष न होना, अरुचि का अभाव, सत्सत्व के प्रति अभाव न होना, यह आत्म
कल्याण की प्रथम सीढ़ी है । अभाव न हो तो ही जीव विकास के प्रति आगे बढ़ता है। 2. जिज्ञासा :- परमार्थ तत्व जानने की इच्छा । मन में जानने की जिज्ञासा हो तो ही तत्व
की जानकारी जहाँ से मिले वहाँ जाने की और सुनने की इच्छा होती है। 3. सुश्रुषा :-धर्मतत्व सुनने की इच्छा, उत्कंठा। 4. श्रवण:- सुगुरु से धर्म तत्व का एकाग्रता से श्रवण करना। 5. बोध :- धर्मतत्व सुनने से ज्ञान होना, तत्व का बोध होना। 6. मीमांसा :- तत्वबोध का ज्ञान होने के बाद उसका सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करना । 7. प्रतिपत्ति :- मीमांसा करते-करते सत्य बोध का स्वीकार । हेदय को हेय रुप में आदि
का स्वीकार । यही सत्य है, शेष मिथ्या है, इत्यादि रुप स्वीकारना। 8. प्रवृत्ति :- उपादेय रुप में समझे हुए मार्ग की ओर प्रवृत्ति करना, उसीमें निमग्न होना । अनुभव मय हो जाना।
बोध : ज्ञान प्रकाश 1. तुम्हारी दृष्टि में बोध अग्नि के कण की उपमायुक्त है।
तृण : घास, घास की गंजी, उसका अग्निकण, अंधेरे में नहीं के बराबर प्रकाश से क्षण भर का प्रकाश दिखाता है। उसी प्रकार सघन मिथ्यात्व से आप्लावित आत्मा पर यह दृष्टि प्रकाश फैलाती है। तृणग्निकण : अल्प स्थिति काल स्थायी - बड़ी कठिनाई से वस्तु स्थिति दिखाई देती है
- अल्पवीर्य युक्त - असमर्थ = सूक्ष्म पदार्थ को जानने में असमर्थ - विकल (अधूरा) = उपयोग करने जाने वाला-न जाने वाला हो जाता है।
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