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©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©® 8. समाधि :- आत्मा का आत्म तत्व के रूप में प्रकट होना । पूर्णत: निर्विकल्प दशा,
रागादि सर्व उपाधि युक्त भावों से मुक्त । ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकरुपता, सभी प्रकार के बहिर्भावों से मुक्ति व समाधि ।
चित्त के ८ दोष 1. खेद :- थक जाना । धर्म की प्रवृत्ति करते-करते थक जाना । जहाँ थकने की बुद्धि वहां
द्वेष, अरूचि, अप्रीति, भाव आते ही हैं। 2. उद्वेग :- बोर हो जाना, तिरस्कृत भाव । धर्म प्रवृत्ति में बैठे-बैठे बोर हो जाना ।
तिरस्कार का भाव आना, कब पूरा हो ओर जाऊँ ऐसे भाव को उद्वेग दोष कहते हैं। 3. क्षेय :- फेंकना, जो क्रिया कर रहे हैं उसको छोड़ मन को अन्य क्रिया (काम) में लगाना,
धर्म क्रिया चल रही हो उस समय अन्य क्रिया में चित्त को जोड़ना। 4. उत्थान :- चित्त का उच्चाटन, क्रिया करते चित्त को उधर से हटाकर मोक्ष का साधन
योग मार्ग की क्रिया का त्याग करने का भाव, लोकलाज से क्रिया न छोड़े पर मन उसमें
न लगे। 5. भ्रांति :- भ्रमण, भटकना, भ्रम होना, योग मार्ग बताई हुई क्रिया का त्याग कर चित्त को
भटकाना। 6. अन्यमद् :- परमार्थ साधक योग मार्ग की क्रिया करते अन्य स्थान का हर्ष मनाना,
खुशी मनाना, कार्य साधन में यह दोष अंगार वृष्टि के समान है। 7. रूग :- रोग, राग (प्रीति) द्वेष (अप्रीति), मोह (अज्ञान) ये तीन दोष ही महारोग हैं।
भाव रोग हैं । संसार वर्धक क्रिया का राग, मोक्ष साधक क्रिया का द्वेष और योग मार्ग
साधक सत्य क्रिया की नासमझी, यह सब भाव साधना में पीड़ा रुप है। 8. आसंग :- आसक्ति होना, परद्रव्य, परभाव के प्रति आसक्ति, मुक्त मार्ग की साधना के
असंख्य उपाय में एक आसक्ति, दूसरा उपाय के प्रति उपेक्षा उत्पन्न करे, गुण स्थान का विकास रोकता है।
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