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________________ 2. मित्रा : मित्रा दृष्टि में उपमा, गोमय, अग्निकण जैसा बोध प्राप्त कराता है । गौमय अग्किण - कंडे का अग्निकण, घास से कुछ तेज प्रकाश होता है । तारा दृष्टि और मित्रा दृष्टि जैसा ही होता है । 3. बला : काष्ट के अग्निकण समान, अधिक शक्तिशाली, अधिक समय स्थायी रहने वाली । स्मृति, संस्कार, प्रयत्न विशेष । १० 4. दीप्रा दृष्टि : - दीपक की प्रभा के समान, अधिक दीर्घ समय और समर्थवान । मोह को तोड़ने का प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । द्रव्य क्रिया होती है । भावक्रिया नहीं होती । 5. स्थिरादृष्टि : इसे रत्नप्रभा के समान कहा है । अप्रतिपाति युक्त बोध - दृष्टि है । दीपक पराभवनीय (बुझ जाने वाला) रत्नप्रभा अपराभवनीय है । 6. कांता दृष्टि :- तारा प्रभा के समान, इस दृष्टि में ज्ञान प्रकाश तारा के समान दूर-दूर तक चमकता और झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है । रत्न तो सीमित क्षेत्र में ही चमकता है, तारा अनंत आकाश में दूर से दिखाई देता है । 7. प्रभा दृष्टि :- सूर्य के प्रकाश समान । आनंद, अपरिमित, ज्वाजल्यमान, ज्ञान प्रकाश सर्व काल ध्यान का हेतु बनता है । भाव श्रावक के 17 लक्षण 1. नारीवशवर्ती नहीं होना, ममता की आसक्ति के त्याग के के परिणाम युक्त जीव । 2. इन्द्रियों के गुलाम नहीं बनना । 3. अर्थ (धन) अनर्थकारी समझना । 4. संसार असार है । 5. विषय विष से भी भयंकर है । 6. आरंभ से भयभीत रहे । 144
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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