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जीवन में स्वस्थता, स्थायी भाव को बढ़ाइए । यह बुद्धि से उदित होती है । साधना द्वारा स्थिर होती है । जब इस स्थित्ति में आनंद का स्पर्श होता है, तब प्रसन्नता का जन्म होता है । स्वस्थता, आनंद, प्रसन्नता के भावों को दृढ़ करने के लिए हैं । उसी का नाम साधना, स्वस्थता और पुरुषार्थ है ।
जीवन की आसक्ति में सासांरिक फल की आशा छुपी होती है ।
* नियाणा का क्यों मना किया ?
आसक्ति के बिना नियाणा होता ही नहीं । आसक्ति से अधिक से अधिक पुद्गल (कर्म) चिपकते हैं । ‘शरीर = मैं हूँ' यह भाव कर्मों को चिपकाता है ।
साधना सर्वज्ञता के लिए नहीं वीतरागता के लिए करना है । वीतराग बनोगे तो सर्वज्ञता स्वयं फूल माला के समान आपके कंठ से आ जाएगी ।
* ब्रह्मचर्य कौन पाल सकता है ?
जिसको प्रभु मिलते हैं तब सच्चे अर्थ में वह ब्रह्मचर्य पालन कर सकता है । यह रस इतना मधुर होता है कि उसके सामने सोना, चांदी, नारी, प्रत्येक पदार्थ रसहीन लगते हैं। करुणता यह है कि सिर्फ प्रभु के रस के अतिरिक्त अन्य सभी रस हमारे जीवन में परिपूर्ण हैं ।
* पाप का अनुबंध तोड़ने के लिए दुष्कृत्य की निंदा है, पुण्य का अनुबंध जोड़ने के लिए सुकृत की अनुमोदना है ।
* तीन योग में समता - उसका नाम सामायिक
जिसके मोक्ष जाने की तैयारी नहीं है, उसको निगोद में जाने की तैयारी रखना पड़ती है । अन्य कहीं भी अनंतकाल तक रहने की व्यवस्था नहीं है । त्रसकाय की उत्तर स्थिति 2000 सागरोपम है । सिद्ध नहीं हुए तो निगोद तैयार ही है ।
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