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18. पाप स्थानक के स्वाध्याय की Cassettes में से हैं
पंडित धीरूभाई * केवल ज्ञानी संसार से मुक्त रहकर साधु जीवन में ही रहते हैं। क्योंकि संसार में रहने से बंधन अवश्य बाधक बनते हैं । बंधन रहित क्षेत्र सर्वोत्तम है । गृहस्थावस्था में आरंभ समारंभ होता ही है । तीर्थंकर का बताया हुआ साधु जीवन ही अहिंसक है ।
* साधु जीवन न हो तो उनके प्रति पूज्य भाव होना चाहिए । भविष्य में तारे और गुणानुराग से कर्म क्षय करें। मन के परिणाम कर्म बंधन में मुख्य भूमिका निभाते हैं । उदाहरण - शिकारी बाण मारा. . पक्षी को नहीं लगा, फिर भी कर्मबंध । किसी बच्चे ने पत्थर फैंका, लगा नहीं किन्तु कर्मबंध तो हुए ।
* अपनी दृष्टि कैसी होना चाहिए ? संसार तरफ की ओघ दृष्टि, आत्मा तरफ की योग दृष्टि (आत्मा की खोज दृष्टि)।
* केवल ज्ञानी उपसर्ग कैसे सहन करते हैं ?
* दुःख आता है वह दोष रहित नहीं होता । दोष युक्त को दुःख आए बिना नहीं रहता । इसलिए संसार में दु:ख आए तब आत्मबोध (योगदृष्टि) करना जिससे कर्मबंध कम हों ।
कषाय :
क्रोध को दूर करना हो तो क्षमा चाहिए ।
चांडाल :
मान को दूर करना हो तो नम्रता चाहिए
चोकड़ी :
माया को दूर करना हो तो सरलता चाहिए । लोभ को दूर करने के लिए संतोष चाहिए
* संसार के विचार करना - आर्त और रौर्द्र ध्यान ।
आत्मा के विचार करना - धर्म ध्यान और शुक्ल - ध्यान ।
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कल्याण चौकड़ी