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UUUUUUUUUUUUUUUUUUUUUUUGG ___ 1. प्रेम एवं करुणा का शुद्ध स्वरूप वह क्षमा :- प्रेम, मित्रता और करुणा के बिना क्षमा कभी किसी को नहीं दी सकती। आत्मा को क्षमाशील बनाने के लिए बहुत गहरी सोच, असीम प्रेम, अतुल्य वात्सल्य, अचल श्रद्धा, अपार मैत्री भाव, अपूर्व समर्थता तथा वीरता की आवश्यकता पड़ती है।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।
इसी प्रकार ढाई अक्षर 'क्षमा वीरस्य भूषणम्' का पढ़कर वीरत्वता को प्राप्त किया जा सकता है । तुम्हारी आत्म-शक्ति की पहचान क्षमा से होती है । क्षमा के द्वारा आत्मा का बोझ कम हो जाता है । क्षमाशील आत्मा को 'अजातशत्रु' (जिसका कोई शत्रु नहीं) कहा है । अपने पास क्षमा है किन्तु समय आने पर विलुप्त हो जाती है।
2. नम्रता (मार्दव) : जहाँ अभिमान है वहाँ पतन है, जहाँ नम्रता है वहाँ उत्थान है।
जीवन में कभी उद्धत, उग्र उदंड, तुच्छ प्रवृत्ति एवं अहंकारी नहीं होना । आंधी, तूफान में बड़े-बड़े वृक्ष, जड़मूल से उखड़ जाते हैं क्योंकि वे कभी फिर से झुक नहीं सकते । सभी से लचीला धातू सोना है, उसे जैसे मोड़ो वैसे मुड़ जाता है । बहुत सरलता से मुड़ता है, इसी से इसके कई प्रकार के आभूषण बनते हैं। मनुष्य अहं से अनजान बना हुआ है । नम्रता का गुण सहेजने जैसा है। ___3. सरलता (आर्जव):- निखालस एवं सरल जीव कोई धर्म आदि नहीं करता, फिर भी सद्गति अवश्य प्राप्त करता है । सरलता, उत्तमता की पहिचान है । जीवन में जितना श्वास का है, उतना ही विश्वास का भी है।
4. अनासक्ति:- आसक्ति से मुक्ति है।
5. तप :- स्वाद, इच्छा, अभिलाषा, त्याग, तप, निर्जरा, क्रोड़ भव के कर्मनाश अंतराय टूटती है, सिद्धि मिले, तिथि का तप फलता है।
6. धर्म संयम :- स्वयं पर नियंत्रण, संयम की लगाम ।
7. सत्य धर्म :- सत्य पर संसार खड़ा है, 'सत छोड़े पत जाय' सब कुछ चला जाता है। 50@G©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®© 126 90GOG©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©