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धरती पर रहकर धरती को कभी नहीं देखा । चांद को देखा । नीचे उतरो, स्वयं को टटोलो, देखो ! ढूंढने से भगवान भी मिल जाते हैं ।
एक मिनिट का क्रोध शरीर के कोमल अवयवों को आग बबूला कर देता है । उन अवयवों को पुन: व्यवस्थित होने में तीन घंटे लगते हैं । जिसके हृदय में बार-बार क्रोध जागृत होता है उसके चेहरे की चमड़ी काली पड़े बिना नहीं रहती । आग से जैसे दिवालें काली पड़ जाती हैं ऐसे मनुष्य पर भी क्रोध का असर होता है । होठ काले और आंखे लाल ही दिखाई देती हैं ।
मनुष्य का कैसा है ? अपने स्वयं का हित भी दिखाई नहीं देता । यह कैसा ? इसीलिए भगवान ने दयालु बनना, सत्य बोलना, संतों का समागम करना, ज्ञान पढ़ना, स्वाध्याय करना, ज्ञानियों की सेवा करना और उनका सुनने का कहा है ।
ठंड में सूर्य कभी बादलों में ढंक जाता है, बादलों से घिर जाता है । प्रकाश दिखता है, यह तो अहसास होता है कि सूर्य है किन्तु कहाँ है यह समझ में नहीं आता । उसी प्रकार मनुष्य में जीव तो अच्छी तरह धड़क रहा है, संपूर्ण शरीर अच्छा काम कर रहा है । सिर्फ सिर ही नहीं चलता ।
ज्ञानियों का कहा हुआ सुनने से कर्म आवनरण क्षीण होते हैं, विलीन भी हो सकते हैं । ज्ञान हो जाता है, समझ में आने लगता है । रास्ता दिखता है तो मनुष्य घर पहुंच जाता है और सुखी हो जाता है । मोक्ष जाता है और आनंद प्राप्त होता है ।
क्षमा
कर्म से विजय क्षमा और समता के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है ।
प्रेम और करुणा का शुद्ध स्वरूप ही क्षमा है ।
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क्षमा वीरस्य भूषणम् ।
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प्रेम, करुणा और मित्रता के भाव हो तो ही किसी को क्षमा किया जा सकता है ।
आत्मा क्षमाशील कैसे होती है ? गहरी समझ, असीम प्रेम और वीरता के गुणों को धारण करने वाली आत्मा ही क्षमाशील हो सकती है ।
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