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साँप, मेंढक और पतंगिया (जुगनू) तीनों की चाल (एक दूसरे को मारने की) चल रही है, इतने में गगन मार्ग से उड़ती हुई चील की दृष्टि इन पर पड़ी - एक झपट्टा मारती सर्प को चोंच में पकड़कर उड़ चली। इधर सर्प जुनून भरा मेंढक को जीता ही निगलने को तैयार था । अब यहाँ चील ने सर्प को पकड़ा और सर्प ने मेंढक को । एक क्षण में सारी कहानी बदल गई सर्प मेंढक की लड़ाई का स्थान रिक्त (खाली) हो गया ।
प्रभु कहते हैं - रात्रि भोजन करने से चील, कौवा, उल्लू, गिद्ध, चामचिड़ी ( चमगादड़ ) जैसी योनि प्राप्त होती है ।
चील ने चोंच मारकर सर्प की आंखें फोड़ दी और मार कर खा गई । जय घोष वेदवेदान्त का परम विद्वान ब्राह्मण यह सब नाटक देख रहा था और गहराई से अवलोकन कर रहा था । विद्वान कहते हैं - देखो ! कैसी आपाधापी, अंधाधूंधी, अराजकता व्याप्त है ? मेंढक को मारने का विचार करने वाला सर्प ही मारा गया । प्रत्येक जीव के पीछे कोई न कोई लगा हुआ है । तभी कहते हैं 'जीव-जीव का लागू ' ऐसे में खामोशी भयभीत थी ।
ब्राह्मण जीव सृष्टि का विचार करने लगा; यदि हम भी ऐसी योनि में चले गए तो ? भय से घबराए हुए, कहीं शांति - निर्भयता नहीं, सुरक्षा नहीं, छोटा सा पेट भरने के लिए कैसा खतरा मोल लेना पड़ता है, अपने 100 वर्ष पूर्ण होने में समय नहीं लगता ? ऐसा न हो इस विचार ने ब्राह्मण को व्याकुल कर दिया । मार्ग में चलते एक जैन मुनि महात्मा मिल गए । विचारों का संयोग और मुनि का सान्निध्य मिला । “सान्निध्य में रहो तो प्रभाव अवश्य पड़ता है ।” साथ रहने से सान्निध्य मिले - ऐसा नहीं है । अंतर्मुखी होने का अवसर मिला ।
शास्त्रकार कहते हैं; हमारे ऊपर भी बहुत बड़ी चील (काल) चक्कर लगाती उड़ रही है; जीवन रूप मेंढक काल सर्प के मुख में फंसा हुआ है। गहराई से सोचने, अवलोकन करने से देखने की विचारने की पद्धति बदल जाती है ।
जय घोष ब्राह्मण ने बेचारगीमय जीवन से उबरने का उपाय पूछा और दीक्षा ग्रहण कर ली । साधु जीवन अहिंसक है। यहां सभी जीवों के साथ मैत्री ही मैत्री है । जीवन निर्दोष है । सत्य दिशा मिली, दशा बदल गई, जय घोष साधु बन गया । निष्परिग्रही, बाहर से पूर्णत: खाली दिखाई देने वाला अंदर भरा-भरा है । इन्द्र भी शर्मा जाता है,
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