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3. प्रथम और अंतिम जिनेश्वर के समय के साधुओं को रंगीन वस्त्रों की छूट मिली तो वक्र
और जड़ होने के कारण वस्त्र परिधान से शोभा आदि करने लगे । कपड़े स्वयं ही रंगने लगे । बीच (मध्य के) के जिनवर के साधु समयानुसार जैसे कपड़े मिले उन्हें अनाशक्त भाव से शरीर को ढंकने के लिए धारण करने लगे । इस कारण रंगीन वस्त्रों की छूट थी । 4. एक आत्मा को जीत लेने से सभी शत्रुओं को जीता जा सकता है ।
5. पाश यानि बंधन, पराधीनता भयंकर बंधन है । माया-ममता का बंधन मुश्किल एवं जटिल बंधन है । सभी स्नेह बंधन है । इस पाश को जो काट डालता है वह कर्म बंधन को तोड़कर आनंदमय जीवन जीता है ।
6. तृष्णा की बेल खतरनाक है। फैलती ही रहती है । उसको तो जड़ से उखाड़ना पड़ता है। 7. कषाय अग्नि की ज्वाला के समान है । अग्नि से भी तीव्रता के साथ जलाकर राख करने वाली क्रोधग्नि है । उसको ठंडा करने वाला भगवान भगवान की वाणी रूप जल है । जो शांति देने वाली और जल जैसी शीतल है। तप एवं शील का महाजल इस आग को ठंडा कर देता है ।
8. मन दुष्ट घोड़े के समान है - मे अविचार (कुविचार) खड्डे में डाल देता है । आगम अभ्यास रुप लगा मन के घोड़े को कन्ट्रोलमें कर सकता है । निग्रह किया हुआ दुष्ट घोड़ा भी इच्छित स्थान पर पहुंचा देता है ।
9. मार्ग और उन्मार्ग ज्ञान से समझा जाता है - अनंतज्ञानी सर्वज्ञ देव द्वारा बताया हुआ मार्ग ही सन्मार्ग है । अज्ञानी जीव चलता तो बहुत है (घाणी के बेल जैसा) परन्तु कहीं भी गंतव्य पर नहीं पहुंच पाता ।
10. संसार रूप महासागर में डूबते जीव को उत्तम धर्मरूपी द्वीप ही आश्रय देता है । किता ही तूफानी प्रवाह भी धर्मद्वीप पर पहुँच जाने वाले जीव की तकलीफ नहीं दे सकता ।
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