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राजा श्रेणिक तो महामुनि के शब्दों को सुनकर चकित सा उनका मुखड़ा ही निहारता रह गया । गहरे अर्थ युक्त शब्द रूप धुंघरु की आवाज उसके कानों में गूंजती रही । सात्विक - व्यक्तित्व और सहज सरलता । महात्मा के साम्राज्य के आगे मेरा तो कुछ भी नहीं - राजा के मन-मस्तिष्क में ये शब्द गुंजायमान हो गए। मन ही मन राजा मुनि का अभिनन्दन करता ही रह गया । अस्खलित प्रवाह की तरह मुनि के वचन जादू कर गए । राजा मुग्ध हो गया। यहाँ धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होने से राजा ने सम्यक्त्व प्राप्त किया।
समकित अर्थात् सच्ची श्रद्धा, वीतराग देव द्वारा बताए गए तत्वों पर अचल श्रद्धा । देव-गुरु-धर्म की तत्वत्रयी में दृढ़ श्रद्धा । यह है समकित .....
श्री केशीगणधर और गौतम स्वामी
उत्तराध्ययन सूत्र - अध्ययन 23वाँ भगवान महावीर से पूर्व, 250 वर्ष पहले पार्श्वनाथ भगवान हुए । पार्श्व प्रभु की शिष्य परंपरा में श्री केशीकुमार मुनिप्रवर-महायशस्वी, मति,श्रुति और अवधिज्ञान के धारक थे। वे श्री केशीगणधर के नाम से विख्यात थे।
श्री केशी गणधर एवं गौतम स्वामी तिंदूक वन में मिले थे और धर्म तथा आचार व्यवहार के विषय में चर्चा हुई थी। उसका संक्षिप्त वृतांत यहां उद्धृत है :1. प्रथम तीर्थंकर के समय के जीव सरल और जड़ थे। अंतिम 24वें तीर्थंकर के समय के
जीव वक्र एवं जड़ (हृदय से वक्र एवं बुद्धि से जड़)। बीच के 22 तीर्थंकरों के समय के
जीव हृदय से सरल (ऋजु) और बुद्धि से समझदार थे। 2. परिग्रह की प्रतिज्ञा में, नियम में नारी का समावेश हो जाता है। परंतु ऐसी समझ 23वें
तीर्थंकर के समय के जीवों में ही थी। इसलिए 4 ही महाव्रत कहे । 24वें तीर्थंकर के समय के जीवों में ऐसी समझ (ज्ञान) नहीं होने के कारण (5वां महाव्रत) पति एवं पत्नी के नियम के लिए अलग व्रत समझाया । उसमें मैथुन नामक व्रत अलग से बताया। इस प्रकार 5 महाव्रत समझाए । काल का प्रभाव जानकर 5 महाव्रत कहें ! वैसे कोई फर्क नहीं है।
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