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________________ ©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©® था । परन्तु दुःख दर्द कोई नहीं ले सका । यह मेरी परतंत्रता थी । मैं अनाथ था । मैं गौरव अनुभव करता था (यह सब मेरे हैं) किन्तु हम कौन हैं ? यह मुझे समझ में आ गया । कि अपना कोई नहीं । कपड़े, गहने, मान-सम्मान, इतना बड़ा खजाना, मनुष्य (जनता) कुककट पावों में नमन करते हैं लेकिन उसमें क्या विशेषता ? कुछ भी नहीं। राजन ! विचार करते-करते मन में संकल्प उत्पन्न हुआ कि संसार, जन्म-मरण, जरादुःख विपदा कारण है । साधुता संसार का नाश करने वाली है, मुझे भी क्षमाशील, इन्द्रिय विजेता, निरारंभी होकर साधुता स्वीकार कर लूं तो फिर कभी भी वेदना सहन न करना पड़ेगी। आश्चर्य राजन् ! ये भाव मन में आते ही मेरी वेदना शमन होने लगी और कुछ ही समय आश्चर्यजनक रूप से मुझे निद्रा आ गई। सुख की नींद सो गया। प्रात:काल ! नेत्र खुले ! शरीर से पूरी तरह वेदना गायब ! बिस्तर से उठा एकदम तरोताजा स्फूर्तियुक्त बदन ! वस्तुत: जो धर्म की शरण में जाता है उसकी समस्त जीव पीड़ा नदारद हो जाती है । कौतुहल, प्रपंच, अविश्वास, दुर्बुद्धि, सम्पूर्ण विखवाद नष्ट हो जाता है। सही अर्थ में स्वयं के स्वामी बनकर अनाथता दूर की जा सकती है। सभी मुझे उठा देखकर पूछने लगे कि - तू कैसा है ? रात को तो तू तड़प रहा था । बहनें कहने लगी- हमने कितनी मानता मानी थी। मैंने कहा - मैं एकदम ठीक हूँ। तुम्हारी तरह मैंने भी परमात्मा से प्रार्थना करके मानतामानी कि मुझे पूर्णतः स्वस्थ कर दो । मैं ठीक होते ही संयम स्वीकार करूँगा । मैंने मातापिता-बहनें-पत्नियाँ सभी को समझाकर चारित्र ले लिया । धर्म की शरण में आनंद ही आनंद है। अपनी आत्मा ही कमल का फूल है और यही बंबूल का शूल है । स्वयं ही स्वयं का शत्रु और मित्र है । अपन जैसे हैं वैसे अपने लिए ही हैं। मांगे हुए माल से कभी सम्पन्न नहीं हुआ जा सकता । स्व या पर की सुरक्षा बचाने के लिए पूरी जिम्मेदारी ले तो ही नाथ है। तुम भी सारा कदाग्रह छोड़ दो। महानिग्रंथों के मार्ग पर आना, तो ही तुम तुम्हारे नाथ बन सकेगे और तभी ही अन्य के नाथ बनने की योग्यता अपने में आएगी (आ सकती है) 505050505050505050505050505095900900505050505050090050
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
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