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अरे ! अरे ! क्या कहते हो ? मैं तुमको सुख भोग, संपत्ति - मित्र, ज्ञाति, परिवार, ममता - माया, और मस्ती भरे माहौल रूप महल में ले चलता हूँ । चलो मैं तुम्हारे सारे अरमान पूरे करूँगा ।
राजा भद्रिक स्वभाव से बालमुनि के रूप- गुण से प्रभावित हो गया । मनुष्य दूसरे की संपत्ति, स्त्री, कपड़े, आभूषण आदि देखकर चकित हो जाता है । ज्ञानी कहते हैं कि किसी के उत्तम कार्य के आशिक बनो, गुण ग्राहक बनो ।
योग के साधक ऐसे महामुनि श्रेणिक राजा की बाल चेष्टा सी बातें सुनकर हंसने लग गए । मुनि बोले 'हे भोलेभाले राजा ! तुमको गलत भ्रम है कि मैं समर्थ हूँ ! किन्तु तू स्वयं अनाथ है, तेरे पास तेरा अपना कुछ नहीं है, सत्य तो यह है कि तेरा रक्षक ही कोई नहीं है ?'
राजा एकदम चमक गया । क्या कहा ? मैं अनाथ हूँ ! मेरे को अनाथ कह रहे हो ? मुनि बोले - नहीं-नहीं राजा तुम अच्छे से काफी समझ गये हो लेकिन मेरी पीड़ा तुमको समझ नहीं आई। तुम जानते हो - कौशांबी नगरी परंपरा से कैसी महान रही है ? मेरे पिता वहां के यशस्वी एवं समर्थ राजा थे। मैं उनका एकमात्र युवराज पुत्र था । अनेक कन्याओं के साथ मेरी शादी हुई । एक दिन अकस्मात् आंख में दर्द उठा और वहां से पूरे शरीर में हो गया । तीखी सुई शरीर में चुभने पर दर्द होता है ऐसा रोम-रोम में असह्य दर्द होने लगा ।
ज्ञानी कहते हैं - सहनशीलता सीखना, भूखे रहना, चलना, निभाना - सीख लेना । बहुत अच्छा रहेगा । दयालु और परोपकारी होना, जिसने भावांतर में तुमको पीड़ा सहने का अवसर न आवे । राजा ने फिर अपना ज्ञा बघारते कहा कि- मैं तुम्हें बीमार ही न पड़ने दूं । इतनी कायरता क्यों ?
मुनि का उत्तर - राजन् ! मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य है । धन्वन्तरी वैद्य भी मुझे क्षण मात्र के लिए शांति नहीं दिला सका । यह मेरी प्रथम अनाथता । मेरे पिताजी सर्वस्व देने के लिए तैयार हो गए तो भी मुझे इस रोग से न छुड़ा सके । ये मेरी कैसी निर्नाथता ? मेरी माता भी मुझे इस दुःख से नहीं छुड़ा सकी । यह कैसी अनाथता ।
मेरे प्रिय भाई, बहन, पत्नियाँ कोई कुछ भी न कर सका, मेरे पास से कोई दूर नहीं होता
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