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©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®OGOG था। संध्या सुवर्ण रथ में सफर करने निकली थी । बादलों ने गुलाल बिछाया हो । सूर्य की किरणें दूर-सुदूर तक फैले स्मित बैचेन मन को भीना कर देता । किरणों में समुन्दर का नीर सोनल वर्णमय था। चित्रकार ने समस्त लहर पंक्ति के समीपस्थ दूसरी-तीसरी अनेक लहेर पंक्तियाँ, हिलोले लेता समुद्र, स्वर्णमय आकाश, सूर्यनारायण सब कुछ वस्त्र पर सजीव चित्रण किया।
वह महिला तो यह सब कुछ देखकर विस्मित चकित रह गई, नाचने लगी। अरे ! ऐसा कभी कहीं देखा नहीं । यह परदेशी तो अजब का जादूगर है । क्या कमाल की है ? अवनि पर अमीरात भरा संपूर्ण अंबर उतार दिया । महिला चित्रकार के जाने के पश्चात् प्रतिदिन चित्र देखने आती। उसका अत्यंत ही गहरा अवलोकन हो गया था। चित्र में क्या उकेरा गया है वह तत्काल देख सकती थी। अब उसके नयनों के आनंद भरे सागर के सामने यह समुद्र ईर्ष्या से खारा हो गया।
एक दिन संध्या को चित्रकार स्वयं के चित्र फलक को लपेटकर, समस्त रंग-रूप-रेखा के साधन लेकर जाने को तैयार हुआ । महिला यह देखकर हाँफती-हाँफती दौड़ी आई। क्या तुम जाने वाले हो ? आसमान की रोशनी भी ले जाने वाले हो ? कैसे घाव देने वाले शब्द हैं यह ? आडम्बर एवं विद्वता रहित होने के बाद अंत:करण में उतर जाए वैसे । उसकी तासीर असर करती ही है ! क्या आप जा रहे हो ?
हाँ बहिना ! तुम्हारी भूमि, सागर किनारा, यह लहरें, यह समन्दर, रेती में पड़े चरण, तैरते वाहन, सूरज की स्वर्णिमता, संध्या की लाली, यह आपका भद्र मनुष्यों का ग्राम ... क्षितिज को उसके आगोश में जाकर सफर कर पुन: निद्रामग्न होता सूर्य । हमारे गाँव में ऐसा कुछ नहीं था इस हेतु यह लेने आया था ।बहुत दिन बीते, अब जाता हूँ। ___ रुको, मेरे वर को बुलाकर लाती हूँ। उन्हें तुम्हारा चित्र दिखाओ । अरे, उन्हें इसमें क्या देखना है ? तुम्हारी नजर समक्ष प्रतिदिन जीता-जागता एवं जीवंत है।
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