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अंतिम देशना - भाग - २
वंदन
प्रणाम
सुधार्म स्वामी जंबू स्वामी को कहते हैं :
हे आयुष्यमान जंबू ! दोनों कोहनी पेट पर रखकर दोनों घुटने, दोनो हथेली एवं मस्तक इन पांचों अंगों को धरती पर जोड़कर (पंचांग प्रणिपात) प्रणाम करने से हमारे शरीर का आकार मंगल कलश जैसा होता है । मानो गुण के सागर में हम गागर बनकर झुके एवं झूमें अर्थात् कि भरे बिना रहना ही नहीं ।
‘उत्तम ना गुण गावतां, गुण आवे निज अंग' हममें यह आलौकिक गुण निश्चित आने ही लगे । नमन करने की भी एक कला है । 'नमे ते सोने गमे' तुम थोड़ा झुकना, नमना तो बहुत अच्छे लगोगे । दिए हुए दान की फल प्राप्ति में शायद समय लगेगा भी, वरिष्ठों को दिया मान तुरंत फलता है । दुनिया के समस्त आश्चर्य हो ऐसी एक से एक शानदार वस्तु हैं परन्तु नमस्कार, प्रणाम, वंदन भारत के सिवाय कहीं और नहीं है ।
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तुम्हारे आत्मा को - घट को, तुम्हारी गागर को थोड़ा झुकाना । जीव की नम्रता रहित की परिस्थित्ति, पणिहारी की नहीं झुकने वाली गागर के गले में रस्सी डालकर पानी के कुँए में घुमने जैसी, कूटाने जैसी, अंधेरे में से बाहर न निकल सके ऐसी परिस्थिति है । हमारे पास बहुत है । समर्थ भगवान है । परन्तु हमने हमारे अहंकार में अनेक अपनों को ठेस पहुंचाई है ।
पनिहारी जैसे गागर को अंधेर कुंए में से भरे हुए शीतल जल को, गागर के गले से डोरी निकाल कर पाती है उसी प्रकार भाव रुपी जल भरकर किए हुए प्रणाम, वंदन नमस्कार से गागर रूपी आत्मा, प्रभु के ज्ञान को पाता है ।
नम्या ते पाम्या ।
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