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* धर्म के प्रति अनहद बहुमान होगा तो पैसा तुच्छ लगेगा ही। * समकिती जीव आत्मा को (कर्म जनित) ठगती है । कर्मों को ठगती है । हेय
उपादेय नो विवेक अनुबंध की आधारशीला है। * धर्म अर्थात् क्या ? आत्मा का स्वभाव ही धर्म।
तीर्थंकर भी दर्शन गुण द्वारा ही (सम्यक्त्व से ही) उर्ध्वगामी बनते हैं । शासन की
स्थापना भी दर्शनगुण द्वारा ही होती है। * अंतिम चार उपबृंहणा, स्थिरिकरण, वात्सल्य, प्रभावना, वर्तन के साथ, प्रथम
नि:शंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि श्रद्धा के साथ बंधे हुए हैं। * सिद्ध जीवों में तत्व की प्रतीति एवं परिणति दोनों होती है।
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