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जैन शतक
'मिथ्यामत के मद छके, सब मतवाले लोय।
सब मतवाले जानिए, जिनमत मत्त न होय॥' इसका अर्थ छापा गया है कि 'मिथ्यामतरूपी मद से छके हुए सब मतवाले लोग उन्मत्त हैं। सब ही को मस्त जानों, परन्तु जैनमत में मस्ती नहीं है।' - यहाँ सब ही को मस्त जानों, परन्तु जैनमत में मस्ती नहीं है' - ऐसा कहना कुछ अँचता नहीं है। इससे जैनमत की महिमा समाप्त हुई सी लगती है। ऐसा लगता है मानों अन्य सभी मतों को माननेवाले आनन्द में हैं, परन्तु जैनमत में आनन्द नहीं है। ऐसा अर्थ ग्रन्थकार कवि को बिल्कुल इष्ट नहीं है। अत: इसे यों कहना चाहिए कि 'अन्य मतों को माननेवाले सभी लोग मतवाले हो रहे हैं, परन्तु जैनमत में मतवालापन नहीं है।' ___ लाहौर वाले इस संस्करण में दूसरी सबसे बड़ी कमी यह है कि इसके अनुवाद की भाषा बहुत टेढ़ी है; क्योंकि वह ८० वर्ष पूर्व लिखी गई थी, जब कि खडी बोली हिन्दी गद्य अपने परिष्कार के प्रारम्भिक चरण ही नाप रहा था। उसकी भाषा में न तो वाक्य-विन्यास ही सुव्यवस्थित है, न शब्दों के रूप ही व्याकरणसम्मत हैं, और वाक्य अनावश्यक रूप से बहुत बड़े-बड़े भी बन गये हैं जो खूब उलझ गये हैं। उदाहरणार्थ पहले ही छन्द का अर्थ पढ़िये :
"चार ज्ञान कहिये मति श्रत अवधि मन:पर्यय इन चार ज्ञान रूपी जहाज में बैठकर श्री गणधरदेव भी जिस प्रभु के गुण रूपी समुद्र को नहीं तिर सके अर्थात् पार न पा सके और देवताओं के जो कहीं खोटे कर्म की लकीर बाकी थी उसके दूर करने के वास्ते जिस प्रभु को देवताओं के समूह ने जमीन पर सिर घस-घस कर प्रणाम करी है ऐसे कौन श्री ऋषभदेव स्वामी उनके आगे हम हाथ जोड़ कर उनके चरणों में पड़ते हैं।"
यहाँ आप देख रहे हैं कि यह पूरा का पूरा एक ही वाक्य है, इसमें कहीं एक अल्पविराम या अर्द्धविराम भी नहीं है । इसके अतिरिक्त कहिए', 'अर्थात् ', 'वास्ते', 'ऐसे कौन' इत्यादि शब्दों के कारण जो दुर्बोधता और वक्रता आई है सो अलग।
ये ही उपर्युक्त स्थितियाँ हैं जिनके कारण मैंने 'जैन शतक' के छन्दों का नये सिरे से गद्यानुवाद लिखा है। ____ गद्यानुवाद के समय मुझे इन छन्दों के अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषार्थ भासित हुये हैं तथा कई छन्दों या छन्दांशों के अर्थ भी अनेक-अनेक भासित हुये हैं, किन्तु यहाँ एक सामान्य सरलार्थ ही दिया जा सका है। विशेष कभी भविष्य में देने का प्रयास करूँगा।