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जैन शतक
यह गद्यानुवाद मैंने अपनी बुद्धि-अनुसार ही नहीं किया; अपितु उसमें डॉ. सीताराम लालस, रामचन्द्र वर्मा, वामन शिवराम आप्टे, मुहम्मद मुस्तफा खाँ 'मद्दाह' आदि द्वारा सम्पादित प्रामाणिक शब्दकोशों की भी पूरी सहायता ली है और विषय के अधिकारी विद्वानों से भी परामर्श किया है।
बालब्रह्मचारी पण्डित संतोषकुमारजी झाँझरी को - जो श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर तेरापंथियान, घी वालों का रास्ता, जयपुर में विगत २७ वर्षों से नियमित रूप से शास्त्र-प्रवचन करते हैं और चारों अनुयोगों के अच्छे अभ्यासी हैं - इस 'जैन शतक' के पूरे छन्द बचपन से ही कंठस्थ हैं। वे इन्हें यदा-कदा
अपने प्रवचनों में भी बड़े प्रभावी ढंग से उद्धृत करते हैं। ____ मैंने इन छन्दों का यह अर्थ उन्हें भी दिखाया है। उन्होंने अपनी पैनी दृष्टि से इसकी सूक्ष्म से सूक्ष्म भूलों को भी दूर करा दिया है । मैं उनका आभार कैसे व्यक्त करूँ - समझ में नहीं आता। फिर क्या आभार व्यक्त कर देने मात्र से उऋण हो जाऊँगा।
इसप्रकार मैंने इन छन्दों का अर्थ लिखने में यद्यपि पूरी सावधानी रखी है, तथापि निश्चित रूप से यह कैसे कह सकता हूँ कि अब इसमें कहीं कोई एक भी गलती नहीं रही है। संभव है कोई भूल रह गई हो। विद्वानों से मैं विनम्रतापूर्वक अनुरोध करता हूँ कि वे अवश्य मुझे उससे अवगत करावें। इसके लिए मैं उनका कृतज्ञ तो होऊँगा ही, अगले संस्करण में उन भूलों को ठीक भी करूँगा। ___ यहाँ मैं एक निवेदन और विशेष रूप से करना चाहता हूँ कि यद्यपि यहाँ छन्दों के साथ अनुवाद भी प्रकाशित किया जा रहा है, किन्तु यदि आप मूल छन्दों को ही बार-बार पढ़कर इस कृति का आनन्द लेंगे तो बहुत अच्छा रहेगा; क्योंकि जो भाव, जो सरसता, जो गरिमा और जो चमत्कार आदि भूधरदासजी के मूल छन्दों में है, वह अनुवाद में कहाँ? अनुवाद में वह सब आ भी नहीं सकता। अनुवाद तो हमारी मजबूरी हुआ करती है। - अत: अनुवाद को बार-बार पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बार-बार तो आप मूल छन्दों को ही पढ़िये। हाँ, पहले एक बार अनुवाद को पढ़कर उनका अर्थ अवश्य समझ लीजिए।
अन्त में, जैन शतक' का स्वाध्याय सबके जीवन में मंगलकारी हो - इस शुभकामना के साथ मैं अपनी बात पूर्ण करता हूँ।
दि. : २० फरवरी, १९९० ई.
- वीरसागर जैन